एक और कुन्ती

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पार्वती जोशी, नैनीताल (nainilive.com

चायना से भारत लौटने के हमारे दो ही सप्ताह रह गये थे। तीन महीने कैसे बीते पता ही नहीं चला। हालाँकि वहाँ गर्मी बहुत थी। किन्तु हमने मौसम के अनुकूल अपने को ढाल लिया था। मेरी बेटी ने मुझसे कहा, ‘‘माँ! हम तीनों के ही बहुत से कपड़े ऐसे हैं, जो हम नहीं पहनते, वे बहुत अच्छी हालत में है। उन्हंे मैं छाँटकर अलग कर देती हूँ। आप कुन्ती और आशा के लिए ले जा सकती हैं।’’ कुन्ती हमारे घर में काम करती है। उसके पाँच बच्चे हैं, बेचारी कितनी खुश हो जायेगी। वह कितने ही घरों में काम करती है, तब जाकर दो जून की रोटी जुटा पाती है। पति भी कमाता है, किन्तु सारा पैसा शराबखोरी में उड़ा देता है। उसने कक्षा आठ में पढ़ने वाली सबसे बड़ी बेटी की शादी भी कर दी। लेकिन दो साल बाद ही, वह अपने गोद में दो महीने के बच्चे को लेकर पति का हाथ थामे वापस माँ के घर आ गई। उसका पति गाँव में बेरोजगार था, वह अब वहाँ किराये की नाव चलाता है। इतना बड़ा कुनबा खटने वाली बेचारी कुन्ती। आशा कूड़ा उठाने वाली और सड़क में झाडू लगाने वाली है। उसके भी छोटे-छोटे तीन बच्चे हैं। मैंने उन कपड़ों में से उनके बच्चों के नाप के और बाकी बड़ों के नाप के कपड़े छाँटे और अपने सामान के साथ रख दिये। सोचा तीस-तीस किलो के दो सूटकेस और सात-सात किलो के दो हैंड बैग ले जा सकते हैं, तो ये कपड़े भी उनके साथ आही जायेंगे। मेरा वश चलता तो मैं उन पुराने बरतनों को भी जरूरतमंदों के लिए उठा ले जाती, जो मेरी बेटी ने रसोई से छाँटकर अलग करके बाहर बरामदे में रख दिये थे। यहाँ सब लोग ऐसा ही करते हैं। बरतन थोड़े भी पुराने हुए, उन्हें उठाकर बाहर रख देते हैं, फिर नये बरतन खरीदकर उनका प्रयोग करते हैं।
भारत लौटने से एक हफ्ते पहले जब मेरी बेटी हमारे टिकटों के प्रिन्ट आउट निकालकर लाई, तो कौन-सी फ्लाइट है, यह देखने के लिए जब मैंने टिकट देखे तो पता चला चाइना साउदर्न की ग्वांगझाऊ से सीधी दिल्ली की फ्लाइट थी, जिसमें केवल 23 किलो प्रति व्यक्ति ही सामान चैकइन की इजाजत थी। मन बुझ गया। दरअसल यहाँ आते समय हम थाइलैण्ड के रास्ते आये थे। वह थाई एअर वेज़ की फ्लाइट थी, जिसमें तीस किलो सामान चैकइन कर सकते थे। अब फिर से सूटकेस खोलकर सात-सात किलो कम करना पड़ेगा, यह सोचकर मैंने तीनों पुराने कपड़ों के थैले बाहर निकाल दिये। फिर कुन्ती का निरीह चेहरा याद आ गया जिसने आते समय कहा था, ‘‘दीदी कुछ और नहीं भी ला सकोगी, तो बच्चे के कपड़े जरूर ला देना।’’ मैंने अपना कुछ सामान, जो मैंने यहाँ से खरीदा था, वह बाहर निकाल दिया और बेटी से कहा, ”जब चाइनीज न्यू इयर में तुम भारत आओगी, तब ले आना।“ राघव के गरम कपड़ों में से वे सभी कपड़े व ट्रैक सूट्स जो मैंने ही मल्लीताल सरदार एण्ड सन्स से खरीदे थे, मुझे पता था, कितने कीमती हैं, उन्हें एक कपड़े के बैग में डालकर सूटकेस के एक कोने में समायोजित कर दिये, तब मेरे मन को थोडी शान्ति मिली। लेकिन बरतनों का तो बहुत मलाल हुआ। मुझे याद आया, दीपावली के समय में जब हम घर की सफाई करवाते हैं, तो पुराने बरतन, जो प्रयोग में नहीं लाते, उन्हें जरूरतमंदों को बाँट देते हैं। लेकिन ये बरतन तो अच्छे-खासे थे, किन्तु सीधे कूड़ेदान में जायेंगे, यह सोचकर मुझे बुरा लग रहा था।
अगले दिन सुबह की वाॅक के लिए निकली। जैसे ही पार्क राॅयल गार्डन के मुख्य गेट से बाहर निकली, यह एक हाउजिंग सोसायटी है, जहाँ मेरी बेटी लोग रहते हैं। सामने एक बड़े से बोर्ड पर नज़र गई, लिखा था ‘सेफ मैक्स- 24 आवर्ज क्लोज्ड’ एक धक्का सा लगा। एक ही दिन में कैसे बन्द हो गया?
यहीं से तो मैंने अपने घर की जरूरतों का बहुत-सा सामान जोड़ लिया था। यहाँ की ये ही चीजंे मुझे अचरज में डाल देती हैं कि कोई भी स्टोर एक दम बन्द हो जाता है या एकदम नया खुल जाता है।
ये सेफमैक्स, एक ही फ्लोर में, चैबीस घन्टे खुला रहने वाला, ऐसा डिपार्टमेन्टल स्टोर था, जहाँ पर घर-गृहस्थी से सम्बन्धित प्रत्येक वस्तु मिलती थी। ग्वांगझाओ के पार्क रायल गार्डन की सभी कामकाजी महिलाओं के लिए तो यह स्टोर वरदान की तरह था। क्योंकि वहाँ की सभी महिलाएँ रात्रि भोजन के पश्चात् हाथ में एक ट्राली पकड़कर दूसरे दिन की जरूरत का सारा सामान ले आती थी। मैंने चलते-चलते अपनी बेटी को इसकी सूचना देने के लिए मैसेज किया फिर लम्बी वाॅक के लिए चल दी।
‘डी कैथेलिन’ माल के सामने से निकलते हुए बहुत आगे निकल गई और फिर उस प्रान्त की ओर मुड़ गई, जिसे देखकर मैं अपनी बेटी से कहती थी कि ये इलाका तो ‘रेशम में टाट के पैबन्द’ जैसा लगता है। दरअसल ‘ग्वांझाओ’ के ‘तियान हि’ जिले का ‘झ्युंग झिंग न्यू टाउन’ बहुत ही सुन्दर है। चारों ओर एक दम चकाचक, रोशनी में नहाया हुआ शहर, गगनचुम्बी अट्टालिकाएँ, साफ सुथरे पार्क, चैड़ी सड़कें और हरियाली से घिरे हुए पैदल रास्ते। केवल यही इलाका ऐसा था, जिनकी इमारतों को देखकर ऐसा लगता था कि मानो खाली जमीन पर लोगों ने सब्जियाँ बो रखी थीं, जिन्हें वे सुबह के समय टोकरियों में रखकर बेचते थे। कई बार तो मैं भी ताजी सब्जियाँ वहीं से खरीदकर लाती थीं। किन्तु आज उस पुरानी काॅलोनी के बदले सपाट मैदान देखकर मैं भौंचक्की रह गई। ऐसा लग रहा था मानो पूरी काॅलोनी में बुलडोजर चलाकर सपाट मैदान बना दिया गया हो। केवल उस सपाट मैदान के किनारे झुग्गियाँ बनी थी। शायद अब वहाँ नई काॅलोनी बन रही होगी।
मैं सोचने लगी कि जब विध्वंश होगा, तभी तो नव निर्माण होगा। नव निर्माण तो इन्हीं मजदूरों के खून-पसीने से होगा। तभी ये झुग्गियाँ बनी होंगी। मैं उन्हीं झुग्गियों से होकर आगे बढ़ने लगी कि शायद आज भी टोकरियों में ताज़ी सब्जियाँ लेकर गाँव वाले बैठे होंगे। तभी मैंने देखा एक स्त्री बाहर लगे नल में बरतन धो रही है। अरे। ये क्या? ये तो वही बरतन हैं, जो पिछले ही हफ्ते मेरी बेटी ने रसोई से छाँटकर बाहर रखवा दिये थे। फिर मुझे लगा हो सकता है यह मेरी आँखों का धोखा हो। मैं थोड़ी देर वहाँ पर खड़ी रही। तभी देखा झुग्गियों के आगे उन मजदूरों के बच्चे खेल रहे थे, जिन्होंने राघव के कपड़े पहने हुए थे, जो मैं कुन्ती के बच्चों के लिए नहीं ले जा पाई थी। यह मेरे लिए सुखद आश्चर्य था। उन सभी बच्चों को देखकर मैं भावविभोर हो गई। मुझे लगा जैसे कुन्ती व आशा के बच्चे ही राघव के कपड़े पहनकर खेल रहे हैं। बच्चे तो बच्चे होते हैं, फिर चाहे वे भारत की कुन्ती के हों या चाइना की कुन्ती के। अन्तर केवल इतना ही है कि यहाँ की कुन्ती के बच्चे स्वस्थ्य व तन्दुरुस्त हैं क्योंकि केवल एक या दो-दो हैं और हमारे देश की कुन्ती के बच्चे मरियल व कुपोषण के शिकार लगते हैं क्योंकि बेहिसाब बच्चे हैं। हमारे देश में नियम व कानून तो हंै लेकिन उन्हें कोई नहीं मानता।
खैर! मैं उन मजदूरों के बच्चों को देखकर गद्गद् हो गई कि चलो ये कपड़े इन मासूमों के काम तो आये। फिर स्वतःस्फूर्त मेरे कदम तेजी से घर की ओर बढ़ने लगे कि जो कपड़े मैंने अपने आवश्यक सामान से निकाल कर, कुन्ती व आशा के बच्चों के लिए अपने सूटकेस में रखे हैं, उन्हें अभी निकालकर बाहर बरामदे में रखवा दूँगी, ताकि वे किसी और कुन्ती के बच्चों के काम आ सकें।

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