कविता के पेड़ और पेड़ों पर कविता
राजशेखर पंत – भीमताल (nainilive.com) – शायद नवंबर या दिसम्बर का महिना रहा होगा. साफ़ आसमान और खिली हुई धूप के बावजूद हवा में हल्की-हल्की ठंडक थी. उत्तराखंड के भीमताल जैसे छोटे पहाड़ी शहर में स्थित अपने एक शताब्दी से भी पुराने घर में इन दिनों आकर, हफ्ते दो हफ्ते तक ठहरने का सिलसिला मैं वर्षों से निभा रहा हूँ. त्यौहारों का मौसम गुज़र चुका होता है. इधर-उधर यूँ ही उग आये कॉसमॉस और गेंदे के फूल मुरझा रहे होते हैं और पेड़ों के पत्ते चटख रंगों में तब्दील हो गिरने की बाट जोह रहे होते हैं. एक अजीब सा ठहराव और वैराग्य, एक अचीन्ही सी निस्पृहता ढलते हुए सूरज की लालिमा के साथ ही चारों ओर फैल जाती है. वाकई पहाड़ इतने सुन्दर, इतने गंभीर, और इतने रहस्यमय कभी नहीं लगते.
मैं धीरे-धीरे सौ-सवासौ मीटर लम्बी, सिल्वरओक्स के लगभग एक शताब्दी पुराने पेड़ों की छाया में वर्षों से पसरी उस पथरीली चढ़ाई पर चढ़ रहा हूँ जो हमारे घर के आँगन में ख़त्म होती है. आँगन में मेरे पिताजी, पिचानवे वर्ष का एक भव्य व्यक्तित्व, ऊंचे पाये वाली कुर्सी में बैठे हैं जो उन्होंने कुछ वर्ष पूर्व अपनी दोनों फीमर बॉल्स टूटने के बाद अपने लिए बनवाई थी. बगल में उनका वॉकर रखा है और नीचे फ़ैली हैं लकड़ी के आड़े-तिरछे टुकड़ों में छुपी अनेक आकृतियाँ, अंतहीन विचार और मानव मन के न जाने कितने उद्वेग. बागीचे में काम करने वाला चन्दन, प्लास्टिक की बाल्टी में रखे दवा के किसी घोल में इन्हें डुबा-डुबा कर धूप में सुखा रहा है, ताकि वुड-बोरर इन्हें अन्दर ही अन्दर कुतर कर खोखला न कर दे.
सारा दृश्य मुझे वर्षों पीछे ले जाता है. किशोर हुआ करता था मैं तब, शायद नवीं-दसवीं का छात्र रहा होऊंगा. जाड़ों के मौसम में जब बागीचे की सफाई हुआ करती थी तो मैं अक्सर पिताजी के साथ घर के पीछे सीढीनुमा खेतों पर फैले बागीचे में चला जाया करता था. पेड़ों की छटाई के दौरान काटी गए सूखी टहनियों, लैंटाना जैसे खर-पतवार की उखड़ी जड़ों इत्यादि को पिताजी अक्सर उठा-उठा कर देखा करते थे. कभी-कभी वे किसी टहनी को माली से एक खास जगह से काटने के लिए कहते. टहनियों और जड़ों के इन टुकड़ों को, जिन्हें वह अपने जेब में रखी प्रूनिंग करने वाली कैंची या चाकू से थोडा बहुत तराश लेते थे, शाम के वक्त माली आँगन के कोने में इकट्ठा कर दिया करता था. पिताजी अक्सर अमेरिकी कवी जोयसे किल्मेर की दो पंक्तियों –ऑय थिंक ऑय शैल नैवर सी, अ पोएम लवली एस अ ट्री -को दोहराते हुआ मुझे इनका अर्थ समझाया करते थे, बताया करते थे मुझे कि गौर से देखने पर मानव मन की प्रत्येक भावना, प्रेम, घृणा, क्रोध जीवन की क्षणभंगुरता वगैरा-वगैरा को इन टहनियों, जड़ों में ढूँढा जा सकता है. वे खाली वक़्त में, खासकर जाड़ों के मौसम में, जब उनका स्कूल बंद हो जाता था, अपना पुराना प्रूनिंग नाइफ, कांच की टूटी बोतलों के कुछ टुकड़े और एक छोटी सी आरी लेकर धूप में बैठ जाया करते थे. सामने होता था बागीचे से जमा की गयी आड़ी-तिरछी लकड़ियों का ढेर. कांच के टुकड़ों से लकड़ी की बाहरी सतह को छीलने के बाद शुरू होता था इन्हें काटने-छांटने का सिलसिला. और फिर उड़ने को तैयार पक्षी, जीवन की त्रासदी पर एक सिलसिलेवार टिप्पणी से लेकर उत्साह के अतिरेक में बेपरवाही से चिल्लाते हुए आदमी तक, सब कुछ इन टुकड़ों में सिमट जाता था. फायरप्लेस में सुलग रहे तने के बेडौल से टुकड़ों या जड़ों को न जाने क्या देख कर वह कभी-कभार बाहर खींच लिया करते थे. ऐसे न जाने कितने टुकड़े विभिन्न विचारों और मुद्राओं को अभिव्यक्त करते हुए हमारे घर में आज भी सहेज कर रखे हुए हैं, बावजूद इस सच के कि समय के लम्बे अंतराल के चलते बहुत कुछ टूट-फूट गया, बंट गया या फिर ख़राब हो गया.
पिताजी को यह सब छोड़े हुए वर्षों हो गए हैं. कभी बेहद मजबूत रहे उनके हाथ अब कांपने लगे हैं, पर लकड़ी के इन टुकड़ों में वर्षों पहले ठहर गयी किसी मुद्रा, किसी भावना या विचार को वह आज भी उसी उत्साह से घर आने वाले मेहमानों को समझाते हैं.
उम्र के इस पड़ाव में आकर, जब कनपटियों में सफेदी घिरने लगी है, मैं अक्सर सोचता हूँ कि कितना कुछ दिया था हमारी पहली पीढ़ी, हमारे माता-पिता ने हमें. बगैर कार्बन-फुटप्रिंट्स, एनवायरनमेंट, पोल्यूशन जैसे शब्दों को सुने-जाने भी हमें यह बोध था कि हमारे चरों और फैले पेड़-पौधों, कीट-पतंगों में जीवन है. हमारी तरह इनमें भी एक कला-बोध, एक लय है. ख़ुद को अभिव्यक्त करते हैं, संवाद करते हैं ये. पिताजी द्वारा जोयसे किल्मेर की अक्सर दोहराई जाने वाली पंक्तियों को कहीं जाने-अनजाने आत्मसात कर लिया था मैंने. कितने भाग्यशाली थे हम कि प्रकृति के प्रति यह सोच बचपन से ही हमारी व्यक्तित्व का एक हिस्सा बन कर हमारे साथ ही बढ़ी है.
हायर सेकेंडरी में पढने वाले मेरे बेटे के लिए एनवायरनमेंट-स्टडीज सिर्फ परीक्षा में अच्छे ग्रेड या फिर वर्ल्ड एनवायरनमेंट डे पर कालेज में होने वाले क्विज .कंपटीशन, डिबेट में इनाम जीतने का एक जरिया भर है.
कहीं तो चूक हुई है हमसे… शायद हम सब से.
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