पहाड़ की चेतना का जागरण जरूरी
प्रमोद पांडे ( nainilive.com )- पृथक राज्य गठन के लगभग बीस साल बाद मिली ग्रीष्मकालीन राजधानी से कुछ राज्य आंदोलनकारी बेशक अपनी जीत को लेकर खुश हो सकते हैं, लेकिन इस निर्णय से शासन-प्रशासन में पहाड़ की चेतना का कितना जागरण होता है, यह यक्ष प्रश्न है। विषम परिस्थितियों वाले इस भू -भाग के अर्से तक उपेक्षित रहने की खातिर ही सबसे पहले कूर्मांचल केसरी पं. बदरी दत्त पांडे ने 1946 में हल्द्वानी में पृथक राज्य का नारा बुलंद किया था। यहां से शुरू हुई जनता की आवाज धीरे-धीरे 1994 तक पहुंचते-पहुंचते स्वत:स्फूर्त आंदोलन में तब्दील ही नहीं हुई, कई शहादतें भी हुईं। इस तरह नौ अक्टूबर 2000 को अलग उत्तराखंड राज्य की घोषणा के बाद विकास की किरणों से वंचित जनता की आकांक्षाएं इन बीस सालों में भी छटपटातीं प्रतीत हो रही हैं। दूरस्थ पहाड़ के गांवों तक बुनियादी सुविधाओं के अभाव के चलते सक्षम बाशिंदों का पलायन और अक्षम लोगों के दुख-दर्द को भोगने की विवशता का समाधान अभी तक नहीं निकलने से प्रतीत हो रहा है कि निर्वाचित जनप्रतिनिधि इस ओर से मुंह फेरे रहे। आलम यह है कि आए दिन पहाड़ के गांवों से रोगियों को डोली में बिठाकर घंटों पैदल चलने के बाद सड़क तक पहुंचाया जा रहा है। बागेश्वर जिले का अंतिम गांव खाती अभी तक सड़क से दूर है। जबकि पर्यटन के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण इस गांव से प्रत्येक वर्ष हजारों की तादाद में सैलानी पिंडारी ग्लेशियर का रुख करते हैं, जो यहां से सिर्फ 18 किमी की दूरी पर है। लेकिन इस गांव तक पहुंचने के लिए पर्यटकों को सड़क से 10 किमी दुर्गम रास्तों से गुजरना ही होता है। बागेश्वर के कपकोट ब्लॉक अंतर्गत ही बोरबलड़ा गांव भी विकट त्रासदियां झेल रहा है। यहां तो पुरुषों के अभाव में महिलाएं रोगियों को डोली पर बिठाकर बीस किमी की दूरी तय कर अस्पताल पहुंचाने को बाध्य होती हैं। जाहिर है कि अब तक की सरकारों में पहाड़ की चेतना समाहित होती तो जनता के प्रति संवेदनशीलता भी अवश्य प्रकट होती नजर आती। गैरसैंण में ग्रीष्मकालीन राजधानी की घोषणा तब अपने अर्थों में सार्थक होगी, जब जनप्रतिनिधियों के साथ ही यहां कार्यरत प्रशासनिक अमला जनता की पीड़ा को अनुभव करेगा। क्योंकि पीड़ की अनुभूति के बिना दवा कर पाना नामुमकिन ही है।
साभार – प्रमोद पांडे की फेसबुक वाल से
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