सावरकर ने नहीं राहुल ने मांगी थी माफी

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डा. गिरीश रंजन तिवारी, नैनीताल ( nainilive.com )- विनायक दामोदर सावरकर के असाधारण बलिदान की भले ही हाल में राहुल गांधी ने खिल्ली उड़ाई हो लेकिन सच्चाई यह है कि स्वतंत्रता संग्राम में सबसे लंबी कैद और अंग्रेजों की सर्वाधिक क्रूरता भुगतने वाले सावरकर का नाम इस आंदोलन में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाना चाहिए।
सावरकर के साथ अंडमान की जेल में 10 वर्षों तक जो जुल्म किया गया वो विश्व के अब तक के सर्वाधिक अमानवीय जुल्मों में शुमार है जिसे सुनने मात्र से किसी के भी रोंगटे खड़े हो जाएं। जेल में उन्हें जिस कोठरी में रखा गया उसके भीतर ही एक कोने में ही शौच भी करना होता था। खाने के नाम पर उबला हुआ चावल का चूरा, बरसाती पानी और जंगली घास की कीड़ों से युक्त सब्जी होती थी। राजनैतिक कैदियों का मनोबल तोड़ने के लिए अंग्रेज भूख-प्रताड़ना – तन्हाई फॉर्मूला अपनाते थे। इनमें भूख और प्रताड़ना से सावरकर का मनोबल न तोड़ पाने पर उन्हें छह माह इस कोठरी में तन्हाई में रखा गया। इसके अलावा सावरकर को बेड़ियों में बांध कर और हाथ छत से बांधकर लगातार सात दिन खड़ा रखा गया। दस दिन उन्हें त्रिभुज के आकार के लट्ठों में पैर फैलाकर जंजीर से बांधकर रखा गया।
कालापानी में उन्हें एक लंगोट पहनकर बैल की तरह जुए में जुतकर प्रतिदिन तीस किलो तिल का तेल भी निकलना पड़ता था। जब भी किसी कैदी को फांसी दी जाती सावरकर को वह फांसी दिखाने ले जाया जाता। इन हालातों में अनेक कैदी मारे गए, कुछ ने आत्महत्या कर ली यहां तक कि पागल भी हो गए पर सावरकर ने संघर्ष की अद्भुत मिसाल दर्शाई जिसने क्रूर अंग्रेजों को तोड़ कर रख दिया। जेल का जीवन कितना अमानवीय था यह इसीसे समझा जा सकता है कि बहुत बाद में 1933 में कैदियों को हाथ धोने को साबुन और ‘खा सकने लायक भोजन’ तक के लिए 45 दिन तक भूख हड़ताल करनी पड़ी थी।
इन तमाम हालातों के बीच उन्होंने जेल की दीवारों में 5000 पंक्तियां कविताओं की लिखीं और याद भी रखीं। इससे पूर्व गिरफ्तारी के बाद जिस जहाज से उन्हें लंदन से भारत लाया गया उसमें उन्हें कैदियों के मलमूत्र से भरे ड्रम के सटाकर बिठाया गया था।
सावरकर से अंग्रेज किस कदर खौफजदा थे यह इससे पता चलता है कि उन्हें दो जन्मों के कारावास की सजा सुनाई गई । यही नहीं कालापानी में अंग्रेजों ने किसी भी कैदी को पांच वर्ष से ज्यादा नहीं रखा, या तो उन्हें रिहा कर दिया या जेल के बाहर खुले में उनके परिवारजनों के साथ रख दिया लेकिन सावरकर को इस जेल में दस वर्ष रखा गया। 1918 में जब तमाम राजनैतिक कैदियों को आम माफी दे दी गई तब भी सावरकर और उनके बड़े भाई गणेश बाबाराव को रिहा नहीं किया गया। अन्य कैदियों के परिजनों को वर्ष में एक बार उनसे मुलाकात कराई जाती थी लेकिन सावरकर को आठ साल तक परिवारजनों से नहीं मिलने दिया गया। 1921 में जेल से छूटने के बाद भी उन्हें 1926 तक रत्नागिरी में जेल में और फिर 1937 तक नजरबंदी में रखा गया। इस तरह वे भारत के एकमात्र स्वतंत्रता सेनानी रहे जो सर्वाधिक 27 वर्ष तक जेल या नजरबंदी में रहे।
सावरकर को मार्च 1910 में लंदन में ब्रिटिश सरकार विरोधी गतिविधियों और पूर्व में बम्बई में भड़काऊ भाषणों के आरोप में गिरफ्तार कर एसएस मोरिया जहाज से भारत लाया जा रहा था। फ्रांस के तट पर वे खिड़की से कूद कर सिपाहियों की गोलियों की बौछार के बीच तैरते हुए फ्रांस जा पहुंचे। अंग्रेजों ने अंतरराष्ट्रीय कानून के खिलाफ धोखे से फ्रांस से उन्हें गिरफ्तार कर लिया।
ये सारा वर्णन सावरकर की जीवटता का अहसास कराता है और उनके ब्रिटिश सरकार से कथित माफी मांगने के दुष्प्रचार की असलियत समझी जा सकती है। अंग्रेज सरकार के दस्तावेजों के मुताबिक सावरकर ने सरकार से कई बार माफी की गुहार लगाई थी। अंग्रेजों द्वारा सावरकर की छवि धूमिल करने के इस दुष्प्रचार को ही राहुल गांधी ने मान्यता देते हुए हाल में कहा था कि मैं सावरकर नहीं जो माफी मांग लूं। वह बात अलग है कि राफेल मामले में देश को गुमराह करने के प्रयास में सुप्रीम कोर्ट को लपेटने के बाद कोर्ट की एक फटकार भर में राहुल ने बाकायदा माफी मांग ली थी वह भी तब जब माफी न मांगने पर उन्हें बमुश्किल एकआद दिन हिरासत भर ही होती जहां उन्हें वीवीआईपी आतिथ्य मिलता। इसके अलावा राहुल एजेएल घोटाले सहित अहमदाबाद के दो कोर्ट से विभिन्न मामलों में जमानत पर चल रहे हैं। जमानत मांगना भी एक तरह से जेल भेजे जाने से माफी मांगने जैसा ही है। राहुल की दादी इंदिरा गांधी ने उन्हें भारत का महान सपूत बताते हुए उन पर डाक टिकट जारी किया था और उनके नाम पर बने ट्रस्ट को अपने निजी खाते से 11 हजार रुपये दिए थे। ऐसे में सावरकर जैसे स्वतंत्रता सेनानी का मखौल उड़ाने का राहुल को कितना नैतिक अधिकार है यह सहज ही समझा जा सकता है।
अंग्रेजों द्वारा सावरकर का मनोबल तोड़ने का हर प्रयास असफल रहा तो उन्होंने उनकी छवि धूमिल करने को इस दुष्प्रचार का सहारा लिया यह अनेक तथ्यों से प्रमाणित होता है। पहली बात यह कि यदि सावरकर ने अनेक बार माफी मांगी थी तो वे सर्वाधिक अवधि तक इस जेल में क्यों रहे जबकि इस बीच माफी मांगने, न मांगने वाले दूसरे तमाम कैदी रिहा कर दिये गए?
अंडमान की अमानवीय यातनाओं में अनेक कैदी मारे गए सावरकर अपनी जिजिविषा के चलते सब सह गए उन्होंने अन्य कैदियों को भी आमरण अनशन न कर जीवित रह कर संघर्ष करने का मंत्र दिया वह स्वयं के लिए माफी कैसे मांग सकते थे। यदि उन्होंने माफी मांगी थी तो उन्हें वीर की उपाधि से क्यों नवाजा गया। सावरकर की जीवटता इससे भी समझी जा सकती है कि 1966 में गंभीर बीमार होने पर उन्होंने आत्म अर्पण की अपनी थ्योरी के तहत भोजन, दवा और पानी तक त्याग दिया और 26 दिन ऐसे ही रहकर प्राण समर्पित किये।
प्रसिद्ध इतिहासविद प्रो अजय रावत कहते हैं कि सावरकर का माफी मांगना अंग्रेजों का फैलाया हुआ झूठ था जिसे कुछ भारतीय इतिहासकारों ने भ्रामक तरीके से प्रस्तुत किया। इस संबंध में अंग्रेजों के खुद के बनाये पेपर्स के अलावा अन्य कोई साक्ष्य नहीं है। वैसे भी जेल के ऐसे कठोर माहौल में वे किसी से कुछ भी लिखवा सकते थे। सावरकर की जीवनी सावरकर ईकोज फ्रॉम द फॉरगॉटन पास्ट के लेखक विक्रम संपथ ने इस संबंध में लंदन जा कर संबंधित दस्तावेजों का अध्ययन कर यह निष्कर्ष निकाला कि सावरकर ने माफी नहीं मांगी बल्कि नियमों में उपलब्ध प्रावधानों के तहत बैरिस्टर होने के नाते स्वयं अपनी पैरवी की थी। ऐसे प्रावधानों के सहारे तमाम बड़े बड़े नेता सजा पूरी होने से पहले रिहा होते रहे थे। उन नेताओं पर तो किसी ने उंगली नहीं उठाई फिर अपनी पैरवी करने मात्र पर सावरकर को बदनाम करना कहां तक उचित है।
सावरकर के खिलाफ यह दुष्प्रचार अंग्रेजों ने इसलिए किया जिससे वे भारतीय जनमानस के हीरो न बन सकें। वह बात अलग है कि 1937 में फिर सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय हुए सावरकर की लोकप्रियता इतनी व्यापक थी कि हर पार्टी उन्हें अपने दल में शामिल करने को आतुर थी हालांकि गांधी नेहरू से वैचारिक मतभेदों के चलते सावरकर ने अपनी प्रथक राह चुनी।
इस सबके बावजूद भी यह मान लिया जाय कि उन्होंने माफी मांग भी ली थी तो भी इसके लिए उनके समस्त संघर्ष और सामाजिक कार्यों को दरकिनार कर उन्हें दोषी, मजाक का पात्र और राजनैतिक अछूत नहीं माना जा सकता क्योंकि इन हालातों में दस वर्ष क्या दस दिन भी किसी को रहना पड़े तो वह माफी मांग कर बाहर आना ही चाहेगा।
अंग्रेजों का दावा था कि सावरकर ने कभी सरकार विरोधी कार्य न करने का हवाला दे कर माफी मांगी थी लेकिन सच्चाई यह है कि 1937 में हर तरह की बंदी से आजादी के बाद उन्होंने भारतीय युवाओं को अंग्रेजों के विरुद्ध सैन्य प्रशिक्षण देने के लिए नासिक में मिलिटरी स्कूल प्रारंभ किया बल्कि रास बिहारी बोस और सुभाष चंद्र बोस के बीच तालमेल बनाकर आईएनए की स्थापना तक में भूमिका निभाई जिसने बाद में अंग्रेजी साम्राज्य की जड़ें हिला दी थीं। इस दौरान वे जातिवादी व्यवस्था, छुआछूत और रूढ़िवादी परंपराओं की समाप्ति के अभियान में भी लगे रहे। रत्नगिरि में उन्होंने जातिवादी व्यवस्था समाप्त करवा भी दी थी।
हिंदुत्व शब्द के प्रणेता सावरकर के लिए इसका अर्थ हिंदूवाद नहीं बल्कि जातिरहित समरस समभाव समाज से था जहां किसी के साथ कोई भेदभाव न हो। वरना धार्मिक रूप से तो सावरकर एक कट्टर नास्तिक थे जिनका पूजापाठ आदि में कोई विश्वास नहीं था।
इसे दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि स्वतंत्रता से पूर्व अंग्रेजों ने उन्हें साजिशन बदनाम किया तो स्वतंत्रता के बाद भारतीय नेताओं ने उनकी लोकप्रियता और वैचारिक स्पष्टवादिता से बौखलाकर उन्हें गांधी की हत्या में दोषी ठहराने के कुचक्र रचा। हांलांकि कोर्ट में इस आरोप का पर्दाफाश हो गया और इस मामले में उनकी संलिप्तता नहीं पाई गई।
आज यह जरूरी है कि सावरकर के संघर्ष और बलिदान का सही मूल्यांकन हो और वर्ग विशेष उनका मखौल उड़ाने के बजाय समुचित सम्मान दे।

लेखक परिचय : वर्तमान में विभागाध्यक्ष , पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग , कुमायूं विश्वविद्यालय नैनीताल एवं पूर्व में अमर उजाला दैनिक समाचार पात्र के ब्यूरो प्रमुख के पद पर कार्यरत

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