खड्ग सिंह वल्दिया-पथरीली पगडंडियों पर चलता हुआ भूविज्ञानी ऋषि… चरैवेति! चरैवेति!
रणधीर संजीवनी ( nainilive.com )- आठवीं-नवीं कक्षा में रहा होगा जब आपको मेरे अन्दर की सहजात शोधी प्रवृत्ति ने एक शोधकर्ता के तौर पर खुद जाना था। हिमालय में होने वाली भूगर्भीय हलचलों के ऊपर छपे इंडिया टुडे के एक लेख से। उस लेख में कई दूसरे भूवैज्ञानिकों का भी उल्लेख रहा था। इससे पहले इंदिरा ताईजी (श्रीमती इंदिरा वल्दिया) और आपको प्रगाढ़ पारिवारिक मित्रता से जानता था। घर में कई दफ़ा आपके विश्वविख्यात एवं प्रभावशाली विद्वान, ईमानदार, निर्भीक और कुशल प्रशासक होने के किस्से सुनते ही रहते थे।पर यह परिचय अपनी आमदानी था।
बारहवीं में आते-आते दुर्गा लाल साह नगर पालिका पुस्तकालय जाना शुरू हुआ। वहाँ हिन्दी साहित्य को जानने के लिए पुरानी पत्रिकाओं में धर्मयुग के पुराने अंक टटोलेते हुए आपका ही लिखा लेख समाने आ गया “क्या संसार में फिर भूकंपों का नया दौर आनेवाला है?” अरे वाह! एक प्रोफ़ैसर जो पत्थरों, पहाड़ों में काम करता है वो धर्मवीर भारती जैसे साहित्यकार के संपादकत्व में निकली साहित्यिक पत्रिका में भी जगह बनाए हुए है। इस बात का पता बाद में चला (आत्मकथा पथरीली पगडंडियों पर -खड्ग सिंह वल्दिया पढ़कर) कि धर्मवीर भारती जी ने आपके लिखे 4 लेख एक साथ स्वीकार किए थे धर्मयुग में छापने के लिए…. नागाधिराज हिमालय जैसे ही समृद्ध इस व्यक्तित्व को उसकी पूरी भव्यता के साथ देखने और सुनने का पहला मौका मिला ग्रेजुएश्न के दौरान भूविज्ञान विभाग, कुमाऊँ विश्वविद्यालय में आयोजित क्वाटर्नरी कल्प पर आधारित अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के स्वागत सत्र में। सत्र के अध्यक्ष पद को सुशोभित किए प्रो. वल्दिया ने विदेशी प्रतिभागियों, विज्ञानियों के सामने पहले अंगरेजी भाषा में अध्यक्षीय अभिभाषण का कुछ अंश बोलने के बाद पूरे बेलौसपन और ओजपूर्ण वाणी में कहा “Now I would like to talk in Hindi also…..”और बेधड़क हिन्दी भाषा में अध्यक्षीय अभिभाषण बोलने लगे…..”हमारा नागाधिराज हिमालय….” भारतीयता और हिन्दी भाषी के प्रति यह स्वाभिमान-बोध आपको हमेशा के लिए मेरे मन में प्रेरणा के नागाधिराज के तौर पर प्रतिष्ठित कर गया।
मेरी खुशी का ठिकना नहीं रहा जब मुझे फिर मौका मिला आपको और पास से जानने, महसूस करने, साथ रहने, पूरी बातचीत करने का। मौका हाथा आया था में भूविज्ञान में एम. एस-सी करते हुए काम के सिलसिले में जवाहर लाल नेहरू सेंटर फॉर एडवांस साइंटिफिक रिसर्च, बेंगलुरू जाने का। मेरे काम को करवाने के लिए यह सर्वमाननीय, ख्यातिलब्ध भूविज्ञानी विशाल-हृदय का परिचय देते हुए प्रयोगशालाओं सहित संस्थान के दफ्तरों में भी मेरे साथ चला। मैं उस वृटवृक्ष को झुकते हुए दिख रहा था जिसकी छांव में कितने ही यश विहग उसका यशोगान करते थे। भूविज्ञान जैसा कठोर विषय किसी कोमल बेल जैसा मुलायम और सुरुचिपूर्ण या ठंडी हवा के झोंके सा शीतल या चंचल नदी जैसा प्रवाहमान, या एक कविता जैसा प्रवाहमान हो सकता है यह आपके बोलने की अद्भुत शैली में आपको सुनते हुए वहीं सीखा। वहाँ से जो उनसे स्नेहिल सम्बन्ध नए सिरे से शुरू हुआ वो हमेशा प्रगाढ़ रहा।
बर्मा में पैदा हुआ बच्चा, जिसकी बचपन में बमबारी से सुनने की क्षमता कम तो हो ही गई थी। बूबू(दादा) के साथ भारत आकर पिथौरागढ़ की सोर घाटी में रहते हुए दसवीं में पहुँचा ही था कि भयानक टाइफाइड के चलते देखने की शक्ति कम हो गयी और जिंदगी भर “हियरिंग एड” से सहायता लेते हुए एक-दो फीट तक ही यह बच्चा सुन पाया। पर इस बच्चे “खड़क” ने इस चुनौतीपूर्ण जीवन में अपने बूबू(दादा), अपने शिक्षक शिवबल्लभ बहुगुणा जी से लेकर राहगीरों, प्रकृति के हर अवयव से भी गुरुमंत्र लेते हुए हिमालय जैसे विराट अस्तित्व की हलचलों, उसके बनने, बढ़ने, फैलने, बदलाव की कहानियों को उसकी “पथरीली पगडंडियों” में चलते हुए उसके पत्थरों, गोलाश्मों, नदी घाटियों, से ऐसा सुना कि यह पद्म भूषण खड्ग सिंह वल्दिया बनकर प्रतिष्ठित हुआ।
आर्थिक विपन्नता, शारीरिक कमजोरियों और पारिवारिक विषम परिस्थितियों को अपनी अदम्य कर्मठता से, हर वक्त कुछ रचनात्मक करने की बेचैनी के साथ पार करता हुआ यह जीवन हिमालय जैसा ही वैविध्यपूर्ण और भव्य व्यक्तित्व के साथ हम सबके सामने रहा। बेबाक ढंग से शोध करते हुए अपने निष्कर्षों को पहले से प्रतिष्ठित तथ्यों के विपरीत होने के बावजूद भी सामने रखने से कभी नहीं चूके, ना भूविज्ञान क्षेत्र में अपनी जगह जल्दी बनाने के लिए उनमें कोई फेरबदल किया। चाहे वह “गंगोलीहाट डॉलोमाइट” के नए रचनाकाल को बताकर लघु हिमालय के भूवैज्ञानिक इतिहास का “क्रांतिक रिविज़न” हो, गंगोलीहाट के प्रसिद्ध मैग्नेसाइट की उत्पत्ति पर किया गया काम, लघु हिमालय का तैयार किया नक्शा सभी जगह में वो डटे रहे। खुद उनके प्रयुक्त शब्दों में कहूँ तो “टैगोर के एकला चलो” के भाव के साथ” साहस पूर्ण ढंग से डटे रहे।
अपने साथ रहे विवादों, मतान्तरों, कार्य शैली की विभिन्नता को उन्होंने स्थान दिया और सम्मान दिया। मेरे खुद के जीवन में मेरे द्वारा लिए गए सबसे बड़े संकल्प को लेने के लिए उन्होंने मुझे लेने से बहुत रोका जो उनके खुद के जीवन में रहे उसी संकल्प के निर्वहन में हुए कड़वे अनुभवों के कारण किया गया था। अपने बूबू के परिचित के गाँव में सूखते नौले को बचाने में अपनी असमर्थता जाहिर करते वक्त उस ग्रामीण की उलाहना से अपने विज्ञान को वल्दिया जी ने समाजिकता से लैस किया। वह यही “आत्मबोध मंत्र” था जिसने उनको महज अकादमिक विद्वान नहीं एक समाजसेवी विज्ञानी बनाया। खुलीगाड़ परियोजना के कुशल नेतृत्व से लेकर नदियों के “फ़्लडवे” में सड़क निर्माण के लिए चलने वाली महत्त्वाकांक्षी सरकारी परियोजना को गलत बताने तक यह समाजसेवी विज्ञानी अपनी ज़िम्मेदारी बखूबी निभा गया।
80 की उम्र में भी भारत रत्न प्रो. सी.एन.आर.राव के साथ उत्तराखंड के सीमान्त गाँव के स्कूली बच्चों के बीच “साइंस आउटरीच”के तहत विज्ञान की अलख जागता हुआ यह मलंग साधु आज चिर विश्राम या कैवल्य को चला गया।हार्दिक श्रद्धांजलि। सादर अंतिम प्रणाम।
हंस अकेला उड़ गया…. एक युग का अंत हुआ … एक परम्परा का अवसान… पर जो एक अद्भुत, चिर-नवीन और चिर-शाश्वत धरोहर देकर गई है। अथक मेहनत की, डूबकर शोध करते जाने की बिना प्रसिद्धि या प्रतिष्ठा की चिन्ता किए हुए। इंदिरा ताईजी समेत उनके परिवार का दुख अकल्पनीय है। उनको इस दु:ख से उभरने की ताकत मिले। प्रो वल्दिया हम सबको कभी ना ख़त्म होने वाली प्रेरणा देकर गए हैं। हमारे बीच काम करता, चलता-फिरता, मार्गदर्शन करता हुआ यह हिमालय जैसा भव्य, अद्भुत और गतिशील ऋषि हिमालय जैसी ही “चिर समाधि” में चला गया पर वहाँ से भी हम सबको लगातार प्रेरणा देते रहेंगे “पथरीली पगडंडियों पर” निष्कम्प चलते रहने की … चरैवेति! चरैवेति!
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