उत्तराखंड की राजनीति का दुर्भाग्य – अपनी स्थिरता की जोह रही बाँट
न्यूज़ डेस्क , नैनीताल ( nainilive.com )- उत्तराखंड राज्य को बने 20 साल पूरे हुए है और अपनी युवावस्था को जाते राज्य ने इन 20 सालों में 9 मुख्यमंत्री देख लिए हैं। इन 9 मुख्यमंत्रियों में भाजपा के किसी भी मुख्यमंत्री ने अपना पूरा 5 साल का कार्यकाल नहीं देखा है। अलग राज्य गठन के बाद उत्तराखंड के विकास के नए आयामों की बाँट जोह रही जनता को सूबे ने सिर्फ राज्य में मुख्यमंत्री ही दिखाए, लेकिन विकास के दावे सिमट कर ही रह गए.
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राज्य गठन के बाद पहले मुख्यमंत्री के रूप में स्व. नित्यानंद स्वामी 354 दिन सूबे के मुखिया रहे। दूसरे मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी मात्र 123 दिन के लिए मुख्यमंत्री रहे। पहले राज्य चुनावों के बाद बने मुख्यमंत्री पंडित नारायण दत्त तिवारी ने 1832 दिन राज्य के मुखिया के रूप में कार्य कर एकमात्र ऐसे मुख्यमंत्री बने ,जिसने अपना पूरा 5 साल का कार्यकाल किया। दुसरे राज्य चुनावों में सूबे की कमान भाजपा ने जनरल खंडूरी को सौंपी , जो 839 दिन ही सरकार चला सके। उनके स्थान पर भेजे गए डॉ रमेश पोखरियाल निशंक 808 दिन सरकार के मुखिया बन कर रह सके. इसके बाद पुनः जनरल खंडूरी को भेज पार्टी ने स्तिथि संभालने की कोशिश तो की , लेकिन इन 185 दिनों के मुखिया के कार्यकाल और खंडूरी हैं जरुरी कैंपेन ने भी असर नहीं दिखाया और भाजपा को अगले चुनावों में हार का मुंह देखना पढ़ा।
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वर्ष 2014 के चुनावों में कांग्रेस को मिली जीत ने एक बार फिर बीती कांग्रेस सरकार की स्थिरता के नारे के साथ राज्य की कमान विजय बहुगुणा को सौपीं , लेकिन अंदरूनी कलह ने उन्हें भी 690 दिनों के लिए ही सत्ता सुख सौंपे। उनके बाद आये मुख्यमंत्री के रूप में राज्य की राजनीति के मजबूत आधार स्तम्भ हरीश रावत ने अपनी पहली पारी 785 दिनों की खेली , वहीँ अंतरकलह और दल -बदल ने राज्य को राष्ट्रपति शासन की तरफ भी धकेला। इन सब के बाद अपनी दूसरी पारी में उन्होंने 311 दिन सरकार चला अपना कार्यकाल पूरा किया। हालांकि जन भावनाओं को समझने और विकास को गति देने में वह भी पीछे ही रह गए और अगले चुंनावों में तगड़ी हार का सामना करना पड़ा।
राज्य को इसी स्थिरता और विकास को गति देने के चुनावी वादों के साथ सत्ता में आयी भाजपा ने सूबे में त्रिवेंद्र सिंह रावत के हातों में बागडोर सौंप कुछ हद तक अपने स्थिरता वाले वाडे को पूरा करने की तो कोशिश की लेकिन सांसदों , मंत्रियों और विधायकों एवं पार्टी कार्यकर्ताओं में उपजे असंतोष को न तो मुखिया भांप पाए और न ही उनके सलाहकार। संवादहीनता कीकमी और कार्यकर्ताओं की उपेक्षा प्रमुख मुद्दा बन कर पार्टी विधायकों और कार्यकर्ताओं द्वारा उठाया जाने लगा। वहीँ 4 सालों में 3 मंत्रियों के पद पर किसी भी विधायक की नियुक्ति न होना भी असंतोष क एक बड़ा मुद्दा बनता रहा. इन्ही सब मुद्दों ने 1452 दिनों के साथ राज्य को फिर एक बार नए मुख्यमंत्री के चेहरे को ढूंढने के लिए विवश कर दिया।
पंडित नारायण दत्त तिवारी के अलावा कोई भी मुख्यमंत्री अपना पूरा कार्यकाल नहीं देख पाया। इसे पंडित जी का राजनितिक निपुणता , चातुर्य और क्षमता ही कहा जाएगा कि कार्यकाल में उथल पुथल के बाद भी उन्होंने अपने कौटिल्य से सबको साधे रखा। लेकिन इसे राज्य का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा की राज्य गठन के इतने काम समय में उसने इतने मुख्यमंत्री देख डाले। वहीँ इस राज्य के साथ बने दुसरे अन्य राज्यों में छतीसगढ़ में इन २० सालों में 3 मुख्यमंत्री तो झारखण्ड में 6 मुख्यमंत्री बनते हुए देखे हैं. इसे स्पष्ट रूप में राज्य की राजनैतिक अस्थिरता से देखा जा सकता है। वहीँ विकास की राह जोहती जनता कहीं न कहीं अपने को ठगा सा महसूस करती है.
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छोटे से उत्तराखंड राज्य में हालांकि भाजपा ने चुनावी वर्ष में चेहरा बदलकर डैमेज कण्ट्रोल करने की कोशिश तो पूरी की हैं, लेकिन इसका असर चुनावों में कितना पड़ेगा यह भविष्य का प्रश्न है. विपक्ष के तेवरों ने साफ़ कर दिया है की चुनावों में वह इस मुद्दे को भुनाने में कोई कसार नहीं रखने वाले हैं. पहले से ही आक्रामक विपक्ष को इस नए घटनाक्रम ने और धार दे दी है. पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत और नेता प्रतिपक्ष डॉ इंदिरा हृदयेश ने तो बीते 4 सालों की त्रिवेंद्र सरकार के काम काज को पूरी तरह से फ्लॉप शो करार दे दिया है. नेता द्वय ने अपने बयानों में भी कहा की अब तो बीजेपी आलाकमान ने भी इस बात पर मुहर लगा दी है की सूबे में सरकार बुरी तरह फ़ैल रही है। अलबत्ता , दिलचस्प यह है , की नए ताज की ताजपोशी जिसके सर पर भी होगी , वह कितना जनता से किये वादों में आगामी 9 महीनों में खरा उतरता है और कितना पार्टी विधायकों और कार्यकर्ताओं को मनाने और साधने में सफल होता है, यह भविष्य ही बता पायेगा।
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