हमारी संस्कृति हमारी पहचान हरेला

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संतोष बोरा , नैनीताल ( nainilive.com )- कुमाऊं विश्वविद्यालय शिक्षक संघ के अध्यक्ष प्रोफेसर ललित तिवारी ने बताया कि भारतीय संस्कृति मानवता के आनंद से ओत प्रोत रही है उसकी विशिष्ट शैली ने मानवता की मिशाल पेस की। उत्तराखण्ड देव भूमि के नाम से प्रसिद्व है तथा इसके त्यौहारों में हर्ष, उल्लास तथा सामाजिक प्रेम सद्भाव तथा पर्यावरण जागरूकता एवं संरक्षण तथा सतत् विकास के लिए प्रेरित करती है।

इन्ही त्यौहारों में भारतीय जीवन का दर्शन भी झलकता है। कुमाऊँ की मिट्टी की खुशबू ही निराली है। श्रावण मास की एक गते अर्थात् शुक्ल पक्ष की प्रथम तिथि को पर्यावरणीय त्यौहार हरेला कुमाऊँ संस्कृति के पर्यावरण संरक्षण का द्योतक है। हरेला जिसका अर्थ है हरियाली का दिन। हरेला उत्तराखण्ड क¢ कुमाऊँ तथा हिमाचल के कांगड़ा जिले में हरियाली त्यौहार के रूप में मनाया जाता है। कुमाऊँ में वैसे तो वर्ष में तीन बार हरेला बोया जाता है चैत्र नवरात्री, शरद नवरात्री एवं श्रावण मास है।

किन्तु श्रावण मास यानि बरसात का हरेला प्रसिद्व है। हरैला अच्छी फसल, बरसात तथा समृद्वि का प्रतीक है। नये बीजों का धरती में जमने का समय है। हरेला इस त्यौहार को शिव तथा पार्वती के विवाह के रूप में भी मनाया जाता है।

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“जी रया जागी रया आकाश जैस उच्च, धरती जैस चाकस है जया, स्यावै क जैस बुद्वि, सूरज जैस तराण है जौ, मिल पिसी भात खाया, जाॅठि टेकि भैर जया, दूब जस फैली जाय”। हरेला का त्यौहार दूब के फैलने की कला से जुड़ा है इस पर्व का आर्शीवाद है आकाश के समान उन्नति हो, पृथ्वी के समान धैर्य, लौमड़ी की तरह चतुराई, शैर का बल सहित आपको दीर्घायु स्वस्थ जीवन मिले।

वैसे तो हरेला 16 जुलाई को ही निर्धारित रहता है किन्तु कभी एक दिन आगे पीछे होता है। उत्तराखण्ड सरकार ने इस दिन सार्वजनिक अवकाश घोषित किया है। हरेला पर्यावरण में पौधों की अनुकूल वातावरण में वृद्वि को प्रद्वशित करता है। इसके लिए हरेले से 10 दिन पूर्व बाँज, बुरांश तथा चौड़ी पत्ती क¢ जंगल की मिट्टी लाकर सुखायी जाती है तत्पश्चात रिंगाल की टोकरी जिसमें गैरू तथा ऐंपड़ होते है उसमें डाली जाती है हरेला बोने से पहले दीप प्रज्जवलित कर टोकरी में अक्षत पिठ्या रोली पुष्प अर्पित कर सात बीज गेहूँ, जौ, सरसौ, मक्का, तिल, चना एवं धान को डाला जाता है उन्हें ढककर रखते है तथा नौ दिन तक इसकी पूजा होती है। त्यौहार से पूर्व संध्या में हरेले की गुडाई मौसमी फलों सेब, नाशपाती, पूलम, आडू, दाड़िम से पूजन सम्पन्न होता है तथा डिकारे पूजन शिव-पार्वती विवाह के अवसर पर किया जाता है। हरेले के दिन पूजन के पश्चात् हरेला काटा जाता है तथा बुजुर्ग महिला सभी सदस्यों को हरेला पूजती है पैर से टखने, घुटने, कमर, छाती, कन्धों, नाख, कान, आॅख को छुआकर सिर पर रखते है कान के उपर रखने की भी परम्परा है तथा दीर्घायु एवं स्वस्थ जीवन का आर्शीवाद दिया जाता है।

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हरेला बीज परीक्षण का पर्व है किन्तु शिव-पार्वती का निवास हिमालय उनका विवाह का दिन तथा श्रावण मास की वर्षा भूमि की उर्वरकता को बढ़ाते हुए जब हम बीजों का मिश्रण करते है तो प्रकृति की छटा निखर आती है जो समाज को जोड़ने के साथ हिमालयी क्षेत्र में पर्यावरण को संरक्षित रखने तथा प्रकृति के प्रति भारतीय संस्कृति एवं हिमालयी सभ्यता के प्रेम को दर्शाती है। हरेला पर्यावरण के विभिन्न पक्षों की तरफ हमें सचेत करता है तो जीवधारियों एवं प्राकृतिक अवयवों की श्रेष्ठता की आर्शीवाद हमें मिलता है किन्तु उन्हें बचाने की जिम्मेदारी हमें लेनी होगी। हरेले के प्रथम 10 दिनों में पर्यावरण संरक्षण के लिए पौधा रोपण कई दशकों से हमारी नई परम्परा के रूप में उभर कर आया है। प्रकृति की इस अमूल्य धरोहर को संरक्षित रखने की सीख यह प्रकृति प्रेमी त्यौहार हरेला जो हमारी संस्कृति एवं हमारी पहचान का द्योतक है हमें बताता है कि हम वैश्विक तापमन वृद्वि, जलवायु परिवर्तन, प्रकृति में कार्बन की मात्रा घटाने जैसे ज्वलंत विषयो के प्रति हमें कार्य करने के लिए प्रेरित करता है।

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