ऐपण के जरिये लोकसंस्कृति का प्रचार-प्रसार कर रही है प्रांजल
संतोष बोरा , नैनीताल ( nainilive.com )- रंगोली अथार्त अल्पना भारत की प्राचीन सांस्कृतिक परंपरा और लोक-कला है। अलग-अलग प्रदेशों में अल्पना के प्रतिरूपों के नाम और उसकी शैली में भिन्नता हो सकती है लेकिन इसके पीछे निहित भावना और संस्कृति में समानता है। इसकी यही विशेषता इसे विविधता देती है और इसके विभिन्न आयामों को भी प्रदर्शित करती है। संपूर्ण भारत के विभिन्न क्षेत्रों में इस लोक कला को अलग-अलग नामों जैसे उत्तराखंड में ऐपण तो उत्तर प्रदेश में चौक पूरना, राजस्थान में मांडना, बिहार में अरिपन, मद्रास में कोलाम, गुजरात में रंगोली, बंगाल में अल्पना, महाराष्ट्र में रंगोली, कर्नाटक में रंगवल्ली के नाम से जाना जाता है।
कुमांऊँ की चित्रकला ‘ऐपण’ मात्र अभिव्यक्ति का साधन नहीं है, वरन् इसमें धर्म, दर्शन और कुमांऊँ की संस्कृति की अमिट छाप भी विद्यमान रहती है। शुभ अवसरों और त्योहारों पर उत्तराखंड की ऐपण कला का अपना अलग ही महत्व है। पीढ़ी दर पीढ़ी बिना प्रशिक्षण के ही चलती आ रही ऐपण कला में भले ही समय के साथ काफी बदलाव आया हो, लेकिन इसका जादू आज भी बरकरार है। बल्कि यूं कह सकते हैं कि समय के साथ-साथ यह और भी समृद्ध हो चला है। आज यह कुमाऊं की गौरवशाली परंपरा की पहचान बन चुकी है। ऐपण का प्रयोग अब खास मौकों पर घर के आंगन, देहरी और दीवारों की शोभा बढ़ाने तक सीमित नहीं रहा है। यह कला पारंपरिक ज्ञान से बाहर निकल एक व्यावसायिक रूप धारण कर चुकी है। इस व्यवसाय ने कई कला पंसद युवाओं के लिए रोजगार के नए दरवाजे खोले हैं। फाइल फोल्डर, जूट बैग कवर, घरों के इंटीरियर डेकोरेशन से लेकर टेक्सटाइल इंडस्ट्री तक में ऐपण कला अपनी छाप छोड़ रही है।
कुमाऊं विश्वविद्यालय के आई०पी०एस०डी०आर० में बीबीए की छात्रा प्रांजल हैडिया भी इस कला को सहेजने, संवारने व इसका प्रचार-प्रसार करने का काम कर रही हैं। प्रांजल छोटी उम्र से ही अपनी मां के साथ मिलकर ऐपण बनाती थी और उन्ही से प्रांजल ने यह कला सीखी है। प्रांजल के द्वारा बनाये गए लक्ष्मी पदचिह्न, सरस्वती चौकी, ज्योकि पट्टी, शिवा चौकी, जनेऊ चौकी आदि के साथ-साथ ऐपण के डिज़ाइन वाले कोस्टर्स, ट्रे, बुकमार्क, पूजा थाल, कुशन कवर आदि को लोगों द्वारा खासा पसंद भी किया जा रहा है।
प्रांजल कहती है कि मैं बचपन से ही घर में माँ को ऐपण बनाते हुए देखती आई हूँ। जिससे ऐपण कला के प्रति शौक बढ़ता गया। माँ ने ही उसे कुछ अलग करने के लिए प्रेरित किया। मैंने ऐपण के जरिये छोटी सी कोशिश की है कि अपनी लोकसंस्कृति को दूसरे लोगों तक पहुंचा सकूं। प्रांजल का मानना है कि कला ईश्वर की वो देन है जो हर व्यक्ति के मन को शांति देती है। हंसी हो, खुशी हो, या कोई भी माहौल हो कला के माध्यम से अपने भाव व्यक्त किए जा सकते हैं। ऐपण बनाने से मेरा मन हमेशा एक नये उत्साह और उमंग से भर जाता है।
कोरोना महामारी के कारण हुए लॉकडाउन में प्रांजल ने इस आपदा के समय को अवसर में बदलते हुए ऐपण के डिज़ाइन वाले बुकमार्क, पूजा थाल, कुशन कवर एवं ट्रे आदि बनाकर लोगों को उपहार स्वरुप प्रदान किये। प्रांजल अब तक न जाने कितने ही साजों-सामान पर ऐपण डालकर उनकी सुन्दरता पर चार चांद लगा चुकी है। प्रांजल ये काम अपनी पढ़ाई करने के बाद बचे हुए समय में करती है।
प्रांजल का कहना है कि जूट बैग, रेडिमेड गारमेंट, पिलो कवर, कुशन कवर, चाय के कप, पूजा की थाली आदि प्रोडेक्ट पर ऐपण की पेंटिंग को लोग खूब पसंद कर रहे हैं। समुचित प्रोत्साहन और प्रचार-प्रसार मिलने पर यह कला उत्तराखंड के युवाओं के लिए स्वरोजगार का आधार बन सकती है।
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