भगवान भूत-नाथ की नगरी बागेश्वर:
डा0 जी.एल.साह, नैनीताल (nainilive.com) – सरयू एवं गोमती नदी के संगम पर स्थित भगवान भूतनाथ की नगरी बागेश्वर धार्मिक एवं सांस्कृतिक मान्यताओं के अनुसार मन्दिर एवं शवदाहन के कारण बडे प्रादेशिक केन्द्र के साथ-साथ बहुआयामी मेलों तथा व्यापार-वाणिज्य का ठेठ पहाडी कस्बा है। अनुमान है कि तत्कालीन परगना दानपुर के 473 , खरही 66, कमस्यार 166, पुंगराउ के 87 गाॅवों की सूक्ष्म सांस्कृतिक विशिष्टाताओं के समेकन केन्द्र के रूप में इस बस्ती की मेागेालिक स्थिति ने इसको प्रशासनिक केन्द्र बनने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया । केन्द्रीय बस्ती के साथ-साथ मकर संक्रान्ति के दिन लगभग एक महिने तक चलने वाले उतरायणी मेंले में व्यापारिक गतिविधियों,स्थानीय लकडी के उत्पाद, चटाइयां एवं शौका तथा भोाटिया व्यापारियों द्वारा तिब्बती ऊन, सुहागा, खाल तथा अन्यान्य उत्पादों के विनिमय ने इसको एक बडी मण्डी के रूप में प्रतिस्थापित किया। 1950-60 के दशक तक लाल इमली तथा धारीवाल जैसी प्रतिष्ठित वस्त्र कम्पनियों द्वारा सीधे बागेश्वर मण्डी से कच्चा ऊन क्रय किया जाता रहा।
पुरा कथाओं में भगवान शिव के बाघ रूप धारण करने वाले इस स्थान को व्याघ्रेश्वर तथा बागीश्वर से कालान्तर में बागेश्वर के रूप में जाना जाता है। स्कन्द पुराण के अन्तर्गत बागेश्वर महात्यम्य में सरयू के तट पर स्वयंभू शिव की इस भूमि को उत्तर में सूर्यकुण्ड दक्षिण में अग्नि कुण्ड के मध्य (नदी विषर्प जनित प्राकृतिक कुण्ड®ं से) सीमांकित कर पापÚ नाशक तप-स्थली तथा मोक्षदा तीर्थ के रूप में धार्मिक मान्यता प्राप्त है। ऐतिहासिक रूप से कत्यूरी राजवंश काल से (7 वीं शदी से 11 वीं शदी तक) सम्बन्धित भू-देव का शिलालेख इस मन्दिर तथा बस्ती के अस्तित्व का प्राचीनतम गवाह हैं। ऐतिहासिक साक्षों के अनुसार सन् 1602 मे राजा लक्ष्मी चन्द ने बागनाथ के वर्तमान मुख्य मन्दिर एवं मन्दिर-समूह का पुनर्निमाण कर इसके वर्तमान रूप को अक्षुण रखने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। यही नही बागेश्वर से पिण्डारी तक लगभग 45मील (70कि0मी0) लम्ब¢ अश्व मार्ग के निर्माण द्वारा दानपुर के सुदूरमय ग्राम्यांचल को पहुूॅच देने का बुद्धिमान प्रयास भी किया। स्वतंत्रता के 100 वर्ष पूर्व सन् 1847 मे इ0 मडेन द्वारा बाह्य जगत को हिमालयी हिमनदों की जानकारी विसरित करने के साथ एशिया के सर्वाधिक समीपस्थ पिण्डारी ग्लेशियर को अन्तर्राष्ट्रीय पहचान प्राप्त हुयी और बागेश्वर विदेशी पर्यटक एवं पर्वतारोहियों का मुख्य विश्रामस्थल बन गया।
ऐतिहासिक तथ्यों से यह भी पता चलता है कि 19 वीं शदी के प्रारम्भ में बागेश्वर आठ-दस घरों की एक छोटी सी स्थायी बस्ती थी। सन् 1860 के आसपास यह स्थान 200-300 दुकानों एवं घरों वाले एक बडे स्थायी बस्ती का रूप धारण कर चुका था, जिसको कि तत्कालीन क्षेत्रीय संदर्भ में बाजार एवं नगर के रूप में मान्यता प्राप्त थी। मुख्य बस्ती मंन्दिर से संलग्न थी और सरयू नदी के पार भी दुग बाजार और सरकारी डाक बंगले का विवरण मिलता है। एटकिन्सन के हिमालय गजेटियर में वर्ष 1886 में इस स्थान की स्थायी आबादी 500 वर्णित है। सरयू और गोमती नदी में दो बडे और मजबूत लकडी के पुलों द्वारा नदियों के आर-पार विस्तृत ग्राम्यांचल के मध्य आवागमन सुलभ था। अंग्रेज लेखक ओस्लो लिखते है कि 1871 मे आयी सरयू की विप्लवकारी बाढ ने नदी किनारे बसी बस्ती को ही प्रभावित नही किया वरन दोनों नदियो के पुराने पुल भी बहा दिये गये फलस्वरूप 1913 में वर्तमान पैदल झूला पुल बनकर तैयार हो पाये। इसमें सरयू नदी पर बना झूला पुल आज भी प्रयोग में है जबकि गोमती नदी का पुल 70 के दशक में जीर्ण-शीर्ण होकर गिरा दिया गया और उसके स्थान पर आज एक नया बडा मोटर पुल निर्मित है। सन 1905 प्रथम विश्वयुद्ध से पूर्व अंग्रेजी शासकों द्वारा टनकपुर- बागेश्वर रेलवे लाइन की योजना का कार्यान्वयन इस क्षेत्र में सर्वेक्षणों की श्रृंखला से प्रारम्भ किया गया था। रेल लाइन के सर्वेक्षण के साक्ष्य आज भी इस क्षेत्र में यत्र तत्र बिखरे मिलते हैं। विश्व युद्ध की दीर्घ अवधि जनित समस्याओं के चलते घीरे-धीरे अंग्रेजी शासकों की यह योजना ठंडे बस्ते में जाती रही और बाद के योजनाकारों द्वारा विस्मृत कर दी गयी। । 1980 के दशक में श्रीमती इदिरा गाॅधी के बागेश्वर आगमन पर सौपे गये ज्ञापनों में टनकपुर रेलवे लाईन की चर्चा की गयी तथापि यह प्रभावशाली अभिव्यक्ति नही बन सकी। इस सम्बन्ध में लेखक द्वारा भी हाल के वषों में तिब्बत तथा नेपाल के साथ सटे इस पर्वतीय क्षेत्र के लिए आर्थिक-सामाजिक एवं सांस्कृतिक प्रगति के अतिरिक्त इसकी भू-राजनैतिक उपयोगिता को ध्यान में रखकर तथा प्रचुर सम्पदा व सैनिकों के सरल प्रवाह के निमित्त प्रधानमंत्री/रेल मंत्री को सुदूर संवेदन एवं भौगोलिक सूचना तंत्र की सहायता से बनायी गयी विस्तृत मूल्यांकन रिपोर्ट में टनकपुर रेलवे लाईन के लिए अंग्रेजी शासकों द्वारा करायें गये सर्वेक्षणों का हवाला देते हुए इस योजना को पुर्नजीवित करेने का आग्रह किया।इसके अतिरिक्त क्षेत्रीय जनता द्वारा किये लम्बे जन संघर्षो के उपरान्त आखिरकार टनकपुर-बागेश्वर रेलवे लाइन के सर्वेंक्षण को राष्ट्रªीय रेल परियोजना के अन्तर्गत सम्मिलित किया गया है।
वर्ष 1921 में प्रसिद्ध उत्तरायणी मेले के अवसर पर स्वाधीनता संग्राम के देशभक्त कांग्रेस जनेां द्वारा कुमाऊँ केसरी, बी०डी० पाण्डे, श्याम लाल साह, विक्टर मोहन जोशी, राम लाल साह, मोहन सिह मेहता , ईश्वरी लाल साह आदि के नेतृत्व में हजारों की संख्या में उपस्थित जन समुदाय के सम्मुख अंग्रेजी राज्य के बंधुवा मजदूरी के नियम कुली बेगार को समाप्त करने की कसम इसी सरजू के तट पर ली थी। शान्त पर्वतीय क्षेत्र एवं सरल निवासियों के राष्ट्र्ीय आन्दोलन से सक्रिय भागीदारी का यह अनूठा उदाहरण था। इस आन्दोलन ने देश के राजनैतिक परिदृश्य पर बागेश्वर के नाम को रा¢शन ही नहीं किया वरन क्षेत्रीय जनता के धन्यवाद ज्ञापन के लिए सन् 1929 में महात्मा गाॅधी को स्वयं यहा आना पडा। 1929 मे ही बागेश्वर में स्वराज मंदिर की स्थापना गांधी जी के कर कमलों द्वारा विक्टर मोहन जोशी द्वारा की गयी।
बींसवी शदी के प्रारम्भ में औषधालय-1906 तथा डाकघर -1909 की स्थापना यहां हो गयी थी तथाफ् िशिक्षा का प्रचार एवं प्रसार यहंा अपेक्षाकृत विलम्बित रहा । 1926 में यहाॅ एक सरकारी स्कूल प्रारम्भ किया गया जो कि 1933 में जूनियर हाईस्कूल के रूप में उच्चीकृत हुआ। स्वतंत्रयोत्तर काल मे 1949 में यहा स्थानीय निवासियों के प्रयासों द्वारा प्राइवेट हाइस्ेकूल देशभक्त विक्टर मोहन जोशी की स्मृति में स्थापित किया गया जो कि 1967 में इण्टर कालेज में परिणित हुआ और तदुपरान्त प्रान्तीयकृत हुआ। महिला शिक्षा के लिए पृथक प्राथमिक पाठशाला सन् 50 के दशक में खुल पायी जबकि पृथक महिला सरकारी हाईस्कूल 1975 में स्थापित हुवा। 1980 के दशक में बच्चों की शिक्षा के लिए अनेकों निजी तथा सरकारी संस्थानों को नगर एवं इसके समीपवर्ती ग्राम्यांचल में खोला गया। 1974 में उच्च शिक्षा केन्द्र के रूप में यहाॅ राजकीय डिग्री कालेज की स्थापना की गयी जिसका उद्घाटन तत्कालीन मुख्यमंत्री स्व0 हेमवती नन्दन बहुगुणा द्वारा किया गया।
यद्यपि 1951 में विद्युतीकरण से बागेश्वर जगमगाया था और जगमगाहट का यह खुशनुमा अहसास स्थानीय स्तर पर (बालीघाट में)ैं स्थापित 25 किलोवाट क्षमता वाले जल -विद्युत संयत्र स¢ उत्पादित बिजली से थी। वर्षा काल में नदियों मे बाढ. युक्त गंदले पेयजल की समस्या से निजात पाने के लिए टाउन एरिया गठन के उपरान्त राजकीय अनुदान तथा स्थानीय निवासियों के श्रमदान से नगर में शुद्ध सार्वजनिक पेयजल प्रणाली का प्रारम्भ हुआ। आज से लगभग 60 वर्ष पूर्व सरकार एवं निजी क्षेत्र की साझेदारी (पी0पी0पी0) का यह अभिनव प्रयोग सम्भवतः प्रारम्भिक उदाहरण रहा होगा।
सडक परिवहन का विकास वर्ष 1952 से शुरू हुवा जबकि अल्मोडा वाया गरूड की मोटर सडक बागेश्वर पहुॅची। 1962 में चीन युद्ध के कारण सामरिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण बागेश्वर-पिथौरागढ सडक 1965 में बनकर तैयार हो सकी । बागेश्वर नगर एवं क्षेत्रीय ग्रामवासियों के श्रमदान से निर्मित बागेश्वर-कपकोट मोटर मार्ग में गाडियों का संचालन 1955-56 के बाद प्रारम्भ हो पाया। इस सुदूर पहाडी अंचल में क्षेत्रीय विकास के लिए निवासियों की आकांक्षा से उत्पन्न सरकार एवं निजी क्षेत्र की साझेदारी (पी0पी0पी0) का यह दूसरा महत्वपूर्ण उदाहरण था। 1970 के दशक में बागेश्वर वाया ताकुला रोड बनकर तैयार हुयीं। 1980 के दशक में बागेश्वर – चैंरा-दोफाड रोड पर आवागमन शुरू हुवा। 1972 में तहसील मुख्यालय बनने के बाद बागेश्वर से संलग्न ग्राम्याांचल के मध्य सुलभ पहॅुच के लिए अनेकों मोटर मार्गो का निर्माण प्रारम्भ हुवा। इसी क्रम में सोमेश्वर रोड, दफौट रोड, कठायतबाडा-अढौली बाईपास रोड पर निर्माण कार्य प्रारम्भ हुवा। मुख्यालय बनने के उपरान्त न केवल जनपद के बाह्य क्षेत्रों को जाने वाले मार्गो के निर्माण ने गति पकडी वरन् 21वीं शदी के प्रारम्भ में नगर के समीपवर्ती भागों में स्थापित कार्यालय/न्यायालय के लिए सम्पर्क मार्गो का निर्माण किया जाने लगा। गाॅव से जिला मुख्यालय तक:आधुनिक नगरीय विकास के प्रारम्भिक चरण में यह केन्द्रीय बस्ती 9 छोेेटे-छोटे तथापि परस्पर संग्रंथित गाॅवों के समूह के रूप में थी जिसमें तीन गैर आबाद (बाडी गूंठ, चैरासी गूंठ एवं ट्ठाली) तथा 6 आबाद गाॅव (बागेश्वर का ज्यूला, भिटालगाॅव, चैरासी गूंठ केदार, घटबगड, कत्यूरमढ तथा बिनवाल तिवारी) थे। स्वतंत्रता से पूर्व अंग्रेजी शासन काल में मेला कमेेटी के द्वारा मकर संक्रान्ति के दिन लगने वाले उत्तरायणी मेले की व्यवस्था के साथ अन्यान्य स्थानीय समस्याओं का प्रबंधन किया जाता था। 1948 में इन गाॅवों को मिला कर बागेश्वर के नाम से ग्राम सभा का गठन हुवा। 1951 की जनगणना में ग्राम सभा बागेश्वर की कुल आबादी 1740 और घरों की संख्या 314 थी। तब यह कांडा विकास खण्ड का हिस्सा था, जो कालान्तर में बागेश्वर विकास खण्ड के रूप में परिवर्तित हो गया।
1955 में बागेश्वर को टाउन एरिया कमेटी, 1962 में नोटिफाइड एरिया कमेटी तथा 1968 में नगरपालिका का दर्जा मिला। 1961 की जनगणना में इसका स्टेटस विवरण निम्नवत था, जनगणना कस्बा, टाउन एरिया, क्षेत्रफल 134 एकड ,मकानों की संख्या 319, कुल परिवार 333 तथा जनसंख्या 2189 थी । 1971 की जनगणना में बागेश्वर प्रथम बार आधिकारिक रूप से नगरीय बस्ती (टाउन) के रूप में अवतरित हुवा जिसमें 4314 नगरवासी थे। 1981 एवं 1991 की जनगणनाऐं इस नगरीय बस्ती की आबादी में 4225 तथा 5772 की अत्यन्त सामान्य बढोतरी को इंगित करती है जबकि 2001 की जनगणना में यहां की जनसंख्या 7803 थी जो कि 25 वार्डो के 1699 परिवारों को सृजित करती थी। सितम्बर 1997 में जनपद सृजन के उपरान्त आज नगर क्षेत्र की आबादी का यह आंकडा 10,000 से उपर पहॅच चुका है।
नगर की केन्द्रीयता, बढती सुविधाओं, क्षेत्रीय विस्तार एवं जन आंकाक्षाओं को देखते हुए 1974 में बागेश्वर को पृथक तहसील बनाया गया और क्रमशः 1976 में इसको परगना घोषित किया गया। इसके फलस्वरूप बागेश्वर औपचारिक रूप से वृहद प्रशासनिक केन्द्र के रूप में अस्तित्व में आया। क्षेत्रीय समग्र विकास की आकांक्षा में छोटी प्रशासनिक इकाइयों की आवश्यकता ने सन् 1985 से बागेश्वर को पृथक जिला घोषित करने की मांग विभिन्न दलों एवं क्षेत्रीय जनता के आन्दोलन के रूप में जोर पकडती रही और अन्ततः सितम्बर 1997 को तत्कालीन मुख्यमंत्री सुश्री मायावती जी द्वारा बागेश्वर को तत्कालीन उत्तर प्रदेश के नये जनपद के रूप सृजन की आधिकारिक घोषणा के साथ नगर जनपद मुख्यालय के रूप में प्रोन्नत हो गया।
जिला मुख्यालय बनने के बाद संस्थागत एवं अ-संस्थागत अवस्थापनाओं की उपलब्धता एवं विस्तार ने नगर के आकार एवं विस्तार अत्यधिक केा गति दी। इसके फलस्वरूप नगर में न केवल जनपद स्तरीय प्रशाासनिक, पुलिस, न्याय सिंचाइ, सडकनिमार्ण,स्वास्थ समेत अनेकों निजी तथा सरकारी शिक्षा संस्थानों आदि सरकारी एवं गैर सरकारी कार्यालय, आवासीय कालोनियाॅ, की स्थापना के साथ-साथ विस्तृत ग्राम्यांचल से नगर की ओर जनसंख्या के निरंतर आब्रजन के परिणामस्वरुप बढते आवासीय दबाव में आशातीत वृद्धि हुई है। वर्तमान में मुख्य नगर क्षेत्र (2.02 वर्ग किÛमीÛ ) के चारों ओर तीव्र बर्हिमुखी नगरीय प्रसार ने इस बस्ती की जन सघनता के साथ-साथ इसके अकारिकी में भी व्यापक रूपान्तरण किये है। प्रवाहित नदियों की दिशा, आवागमन मार्गो की उपलब्धता, स्थानीय क्षेत्रों में सरल एवं उपलब्ध पहुॅच तथा बसाव की उपयुक्तता ने आवासीय एवं गैर आवासीय विस्तार को पार्श्विक क्षैतिजीय सीमाओ के साथ-साथ रैंगते हुए स्थानीय पहाडियों के आसपास पॅहुचा दिया है। नगरीय-ग्रामीण सीमा की औपचारिकता को छोडते हुए आज का बागेश्वर 6.1 वर्ग किÛमीÛसे अध्ािक क्षेत्र्ाफल एवं 50 हजार से अधिक जनसंख्या वाला एक बडे पहाडी कस्बे का रूप ले चुका है। जहॅा सूर्यकुण्ड से तहसील तक तथा मोटर स्टेशन से गाडगाॅव तथा नदीगाॅव तक 6 कि0मी0 की लम्बी बाजार में लगभग ढाई हजार दुकानें, निश्चित रूप से इसके बढते आकार का परिचायक है
नगरीयकरण का अ£रता एवं अनिय¨जित स्वरूपः नगरीयकरण के सामान्य मापदण्डों पर विगत 50 वर्षो की अपनी विकास यात्रा में जहा ंएक ओर बागेश्वर का फलता-फूलता व्यक्तित्व निखरता चला गया। वहीं विगत डेढ दशक के अनियन्त्रित एवं अनियोजित नगरीकरण की प्रवृत्तियों ने इसकी पर्यावरणीय संवेदनशीलता के नाजुक ताने-बाने को झकझोरा भी है। पर्वतों की तलहटी में नदियो के किनारे बसे अधिकांश कस्बों की भाॅति यहाॅ भी भूमिÚउपयोग के बदलते प्रतिमानों ने आर्थिक समृद्धि के के प्रतीक सेरों (नदियों के किनारे की समतल,उवर्रक एवं विस्तृत कृषि भूमि) का कृषिे से इतर अन्यान्य उपयोग ्र मुख्यत आवासों में रूपान्तरण, भूदश्य के सौन्दर्यबोध के साथ क्षेत्रीय सूक्ष्म पारिस्थितिक तंत्र पर भी गम्भीर दुश्परिणामों का संकेत देता है्र । कभी पूर¢ नगर का¢ स्वच्छ प¢यजल प्रदान करन¢ वाला एकमात्र्ा (मण्डल सेरे के दक्षिण में स्थित) प्राकृतिक जल स्रोत सेला नौला जल की निरंतर कमी स¢ समाप्ति क¢ कगार पर है्र । लेखक द्वारा किये गये शोध परिणामों के निष्कर्ष इंगित करते है कि 1971 से 2017 तक 45 वर्षो में उत्तराखण्ड के विस्तृत मुख्य कृषि भूमियों में सम्मिलित (1.06 वर्ग कि0मी0 107 हैक्टेयर अथवा 207 एकड क्षेत्रफल वाले ) मण्डलसेरा की लगभग 60 प्रतिशत कृषि भूमि ,सैंज का सेरा( 47 एकड ) की 85 प्रतिशत ्र नदीगाॅव (45 एकड) की 40 प्रतिशत तथा सूर्यकुण्ड के समीप (18 एकड) कृषि भूमि का 90 प्रतिशत हिस्सा मानवीय अतिक्रमण के कारण अपने नैसर्गिंक कृषि उपयोग से वंचित किया जा चुका है। भूमि संसाध्ान की कृषि के स्थान पर अन्यान्य जमीनी उपयोग की ये खतरनाक प्रवृत्तियाॅ यदि इसी दर से कृषि भूमि का भक्षण करती रही तो सन् 2030 तक मण्डल सेरा अस्तित्व विहीन हो जायेगा, जबकि नदीगाॅव को समाप्त होने में 10 वर्षो से अधिक समय नहीं लगेगा। सूर्यकुण्ड एवं सैंज सेरा लगभग समाप्त ह¨ बागेश्वर की बस्तिय¨ं का रुप ले चुके हैं।
इसी प्रकार सदानीरा सरयू एवं गोमती के जल स्तर में निरन्तर गिरावट ,नदी पैंदेंा (बगड) व वेदिकाओं पर उपखनिजों का अबन्धित खनन तथा मानवीयकृत घुसपैठ और सौन्दर्यकरण के नाम पर इन नदियों का नालों के रूप में रूपान्तरण बागेश्वर के भविष्य के लिए गंभीर संकट का कारण बन सकता है। घटबगड के घराट ,(पनचक्कियाॅ) तथा बान और सिंचाई के लिए बनी गूलें भी सभी अतिक्रमण की चपेट में गुम हो चुके हंै। बहुतायत से पैदा होने वाले उपोष्ण कटिबन्धिय फल ्रआम ,अमरूद केले और नाशपाती के बगीचे जो कि बागेश्वर को बागों का शहर बनाते थे सिकुडकत¢ हुए अपना अस्तित्व कमा¢ब¢स खो चुके हैं। अनियोजित विकास एव ंविशिष्ट भू-भौतिक विशेषताओं के कारण जल-मल निष्कासन, ठोस अपशिष्ट प्रबन्धन, जल एवं वायु प्रदूषण आदि गम्भीर समस्यायें स्थायी बन चुकी है। टैªफिक जाम, जैसी अनेकांे छोटी-मोटी समस्यायें यहाॅ देखी जा सकती है। ऐसा प्रतीत होता है कि है कि अनियोजित एवं अनियन्त्रित छद्म नगरीयकरण की यह प्रवृत्ति सचमुच कहीं इस शिव-भूमि को भविष्य की एक बडी मलिन बस्ती में तब्दील न कर दे। अतएव जरूरत इस बात की है कि शहरी अनुशासन के लिए एक क्षेत्र-विशिष्ट व,टिकाउ विकास की दीर्घकालिक महायोजना इस नगर के लिए तुरन्त बनायी जाय।
(लेखक के पिता स्व0 ईश्वरी लाल साह बागेश्वर ग्राम सभा के प्रथम निर्वाचित सभापति प्रथम ब्लाक प्रमुख तथा टाउन एरिया के प्रथम अध्यक्ष रहे है। अपने शोध के दौरान उनके साक्षात्कार से प्राप्त संकलित सूचनाऐं इस लेख के लिए उपयोगी सि़द्ध हुयी हैं।)
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