स्वामी विवेकानंद की जयंती पर विशेष-काकड़ीघाट, संतो का निवास स्थान

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स्वामी विवेकानंद की जयंती पर विशेष – वह स्थान जहाँ स्वामी विवेकानंद को प्राप्त हुई आध्यात्मिक अनुभूति।

प्रो० अजय सिंह रावत ( नैनीताल )-
मानव जाति के इतिहास में ऐसे क्षण भी आते है जब उन्हें पीछे मुड़के देखा जाये तो मुँह से निकलता है, हाँ यहाँ से इतिहास के पन्ने बदलने लगे थे। इनमे से एक आध्यात्मिक वातावरण एवं काकड़ीघाट के मंदिर में पवित्र आत्माओं का अप्रत्यक्ष एवं अमूर्त रूप से लोगों को प्रेरित करना है। कोसी तथा शिरोत नदियों के संगम पर स्थित काकड़ीघाट का मंदिर अति प्राचीन सदियों से साधू, संतों और ऋषियों के आकर्षण का केंद्र रहा है। महान संत जैसे गुदरी महाराज, स्वामी विवेकानंद, सोमबर्गिरी महाराज, तथा 20 वीं सदी के दिव्य पुरुष नीबकरोरी बाबा यहाँ तपस्या कर चुके हैं। अपने विशिष्ट सौंदर्य से मानवता को रोमांचित करने वाली तथा प्रगाढ सोच से परम वास्तविकता के रहस्य को जानने की उत्सुकता का काकड़ीघाट से नाता रहा है। सन्यासीगण तथा श्रद्धालु इस प्राचीन मंदिर में सम्पूर्ण समर्पण की भावना एवं प्रार्थना के साथ परमात्मा का आह्वान करने यहाँ आते हैं।
काकड़ीघाट के पवित्र दीपक,
हमें अपने दिव्य प्रकाश की ओर ले चल,
हमारे मन से अंधकार दूर कर,
हमें परम स्थल की ओर ले चल,
हमें अनुभव और जान लेने दे
अपने चरणों पर अनंत काल के फल,
मानव प्रेम से हमें भर दे
सांसारिक बंधनों से हमें मुक्त कर।

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काकड़ीघाट शाश्वत सौंदर्य और सकारात्मक मन के भण्डार का प्रतीक है। इस स्थान का संगीतमय आकर्षण और दीर्घकाल तक चलने वाला परमानंद अद्वितीय और अदभुत हैं। यहाँ आकर प्रत्येक मनुष्य धीरे-धीरे परम सत्य की ओर अग्रसर होते है। परन्तु उस अवस्था और परमात्मा तक पहुँचने के लिए सम्पूर्ण विनम्रता के साथ खुद को समर्पण करना आवश्यक है।
यह पवित्र स्थान सही अर्थों में तीर्थ है। पौराणिक साहित्य में यह कहा गया है कि तीर्थ यात्रा के कारण पुण्य या अच्छे कर्म कमाने से सभी वाक् तथा पापकर्म नष्ट हो जाते हैं। संतों और ऋषियों के स्थली रहा काकड़ीघाट में पापों को नष्ट कर शुद्ध करने की शक्ति है। सन 1962 से पूर्व जब बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री मोटर मार्गो से नहीं जुड़े थे, तब तीर्थयात्री पैदल चार धाम के लिए जाते थे और जाते वक्त काकड़ीघाट में अपनी यात्रा को रोककर आगे बढते थे। यहाँ के परम श्रद्धालु के के शाह के अनुसार, प्राचीन काल से कई पुण्य आत्माओं ने यहाँ ‘यात्रा‘ या तीर्थ यात्रा के दौरान यहाँ भ्रमण तथा तपस्या कर अपने आध्यात्मिक शक्तियों से इस स्थान को पवित्र करा था। काकड़ीघाट में तपस्या कर, कोई भी स्वतः रूप से संतों की छत्रछाया के अंतर्गत आ जाता है। इस इच्छुक्ता से कि काकड़ीघाट में अदृश्य परमात्मा की कृपा मिल सकेगी, साधक आत्मीय परिवर्तन की ओर अग्रसर होता है। इस तरह का परिवर्तन, व्यक्ति के जीवन में परिवर्तन का सागर लाने के अलावा, समाज के लिए भी लाभदायक होता है। यह समाज में वांछनीय ताकतों को मजबूत करते हुए पूरे समाज में भलाई प्रदान करने में मदद करता है। यही मूल्य और आदर्श व्यक्तियों के जीवन और धीरे-धीरे समुदाय, देश और दुनिया में व्याप्त होता जाता है।

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कुमाऊं के पूर्व औपनिवेशिक दस्तावेजों के अनुसार यह क्षेत्र लोकप्रिय रूप से प्रसिद्ध संत गुदरी महाराज के नाम पर गुदरमणि के रूप में जाना जाता था। वह उत्तरी भारत के रहस्यवादी ऋषि थे, जिन्हे शाश्वत सत्य का ज्ञान था तथा त्रिकाल ज्ञानी होते हुए वह अतीत, वर्तमान और भविष्य के ज्ञाता भी थे। वह अपने शरीर को रजाई से ढक कर रखते थे है। जब भी कोई बीमार व्यक्ति, जिसने सभी आशा खो दी हो, उनके पास आता था, तब बाबा अपने शरीर को जोर से काँपते हुए हिलाते थे और मरीज तुरंत ठीक हो जाया करता था।
स्वामी विवेकानंद ने भी सन 1890 और 1897 में अल्मोड़ा की अपनी यात्राओं के दौरान इस जगह को पवित्र करा था। 13 मई 1890 को वह नैनी ताल पहुंचे थे, जहाँ वे अपने प्रिय मित्र खेतड़ी के महाराजा जिन्होंने धर्म संसद में भाग लेने के लिए उनकी शिकागो यात्रा का खर्चा उठाया था, से मिले। नैनीताल से स्वामीजी अल्मोड़ा के लिए रवाना हो गए तथा मार्ग में वह काकड़ीघाट में रुके। वह भगवान शिव के मंदिर में वह अंतर्धान हो गए जहाँ तत्पश्चात उन्हें अदभुत आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। काकड़ीघाट में बरगद के पेड़ के नीचे जहाँ स्वामीजी अपने प्रवास के दौरान ध्यान करने बैठे थे, वह आज भी विदयमान है।

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ठीक उसी अवधि के दौरान उत्तर पश्चिमी प्रान्त (अब पाकिस्तान में) से सोमबर्गिरी महाराज कुमाऊं आये थे। उनका जन्म पिंड ददन खान में सन 1860 में हुआ था, जहाँ उनके पिता सत्र न्यायाधीश के रूप में कार्यरत थे। कुमाऊं में आने के बाद वह स्थायी रूप से यहीं बस गए और काकड़ीघाट में अपने पहले तथा पदमपुरी में दूसरे आश्रम को स्थापित कर रहने लगे। सर्दियों में जब पदमपुरी बर्फ से ढकी रहती थी और वहाँ अथाह ठण्ड पड़ती थी तो वे वहीं रहते थे। वहीं गर्मियों में जब काकड़ीघाट की घाटी गर्म रहती थी तब वह यहाँ आ जाया करते थे। सोमबर्गिरी महाराज एक ऐसे सद गुरु थे जो सभी के मन की आध्यात्मिक चेतनाओं को जगाकर सांसारिक इच्छाओं को खत्म कर देते थे। एक बार जब रानीखेत से कुछ मछली पकड़ने वाले अंग्रेज काकड़ीघाट मंदिर के पास मछली पकड़ने आये थे, तब उन्हें मछलियाँ नहीं मिल पायी। लगातार प्रयासों के बाद भी वे जब सफल नहीं पाये तो उन्हें लोगो ने बताया गया कि मछलियाँ सोमबर्गिरी महाराज के संरक्षण में रहती हैं। यही सोच उन्होंने मन में जब महाराज को याद किया तो मछलियाँ नदी के तट पर आ गयी और फिर गायब हो गई। ऐसा कई बार होते देख मछली पकड़ने वाले ब्रिटिशर्स बाबा के भक्त बन गए। ऐसा माना जाता है एक अन्य अवसर पर काकड़ीघाट में बैठे हुए ही उन्होंने उत्तर पश्चिमी प्रांत में अपने पिता का दाह-संस्कार भी किया था।
काकड़ीघाट, जो नैनी ताल से अल्मोड़ा सड़क पर पर 40 किमी की दूरी पर स्थित है पर काल भैरव तथा भगवान शिव का एक प्राचीन मंदिर है। के के शाह जी के अनुसार दोनों मंदिरों में अत्यधिक आध्यात्मिक ऊर्जा विदयमान है जिसे केवल उन लोगों द्वारा ही अनुभव किया जा सकता है जो रातभर उन मंदिरों में अकेले रहते हों।
15 जून 1965 में इस प्राचीन मंदिर के निकट अपनी आध्यात्मिक महत्वता एवं विभिन्न संतों की समाधियां होने के फलस्वरूप श्रद्धेय संत, नीबकरौली बाबा ने वहाँ हनुमान जी का एक मंदिर बनाया था। ब्रिटिश काल के दौरान हुए एक वाक्या के समय उनका नाम नीबकरौली बाबा पड़ा था। एक दिन फर्रुखाबाद के टूंडला में ट्रेन आते देख उनका मन इसमें भ्रमण करने का हुआ जिसके लिए उन्होंने टिकट भी खरीद लिया था। लेकिन एक एंग्लो भारतीय टिकट देखने वाले ने उन्होंने ट्रेन से बाहर जाने को कह दिया। बाबाजी सहज ही ट्रेन से बाहर आ गए परन्तु गाड़ी के जाने के सिगनल होने के बावजूद वह अपनी जगह से हिल न सकी एवं रेलवे अधिकारियों के अथक प्रयासो के बावजूद आगे नहीं बढ़ सकी। अंत में कुछ भारतीय यात्रियों के कहने करने पर की बाबाजी को ट्रेन में बैठाया जाय, रेलवे अधिकारियों ने बाबाजी को ट्रेन में वापस आने का अनुरोध किया। इस घटना के बाद से बाबा का नाम तथा उस गॉंव के नाम पर स्टेशन का नाम नीबकरौली पड़ गया।
जिस दिन भगवान हनुमान की प्रतिमा काकड़ीघाट के नजदीक स्थापना हेतु लायी गयी थी उस दिन एक अजीब घटना घटित हुई। एक सज्जन विनोद जोशी जी के अनुसार, उस क्षेत्र में लंगूर देखना आम बात थी पर बन्दर देखना नहीं। भगवान की प्रतिमा को जब ट्रक से उतारा जा रहा था तब नदी के पार मंदिर में तथा पेड़ों पर भारी संख्या में बन्दर आ गए थे। वे अपने पैरों पर खड़े तथा हाथ उठाये ऐसे लग रहे थे मानो प्रतिमा को सत्-सत् नमन एवं अभिनन्दन कर कर रहे हो।
काकड़ीघाट आश्चर्यों का आश्चर्य,प्रकाशों का प्रकाश एवं शक्तियों का शक्ति स्थल है। ऐसा कोई भी ज्ञान काकड़ीघाट से निकले हुए ज्ञान से पवित्र तथा बढकर नहीं है, जो गिरते हुए मूल्यों और अविश्वास के मध्य देवत्व की ज्योति से परमात्मा की सेवा करने का संकल्प एक पीढ़ी से दूसरी पीढी बाँट रहा है। इसीलिए वहाँ की आध्यात्मिक शक्ति सभी धर्मों के प्रति भावना और अंततः मानवता के प्रति श्रद्धा जगाने हेतु प्रेरित करता है।

लेखक प्रख्यात इतिहासविद एवं पर्यावरणविद हैं और पूर्व में कुमाऊं विश्वविद्यालय नैनीताल के इतिहास विभाग के विभागाध्यक्ष के पद से सेवानिवृत है. आपकी लिखी पुस्तक उत्तराखंड का समग्र राजनैतिक इतिहास , उत्तराखंड के राजनैतिक इतिहास और इतिहास के विद्यार्थियों के मध्य अति लोकप्रिय पुस्तक है.

  • अंग्रेजी के मूल लेख से हिंदी में मनुज पांडेय ( Manuj Pandey ) द्वारा अनुवादित
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