लॉकडाउन चिंतन- पर्यावरण दिवस पर…
राजशेखर पंत, भीमताल ( nainilive.com )- 5 जून, आज विश्व पर्यावरण दिवस है. जिस प्रकार २ अक्टूबर को गाँधीजी की तस्वीर झाड़-पोंछ कर मंच पर सजाने के काम आती है ठीक उसी प्रकार हथेली पर उगते हुए पेड़, अंकुरित होते हुए पौधे इत्यादि की तस्वीरें आज सोशल और प्रिंट मीडिया में छाई रहती हैं. लोग वृक्षारोपण करते हुए अपनी तस्वीरें फेसबुक पर शेयर करते हैं. अच्छी बात है. इस तरह की तस्वीरें देख कर प्रेरणा भी मिलती है और मन करता है कि आप भी एक पौधा लगायें. मुझे इस नई परंपरा का विरोध करने का कोई कारण नज़र नहीं आता.
पर निश्चित रूप से यह दिन आत्मनिरीक्षण का भी है, इस बात को टटोलने का कि व्यक्तिगत रूप से हम पर्यावावरण संरक्षण या उससे जुड़े मुद्दों के प्रति कितने संवेदनशील हैं, कितने जागरूक हैं? हमारा रोज़मर्रा का आचार-व्यवहार पर्यावरण की सोच से कंडीशन होता भी है या नहीं? नेताओं और कुछ स्वयंभू पर्वावरणविदों की बातें, मुझे लगता है, ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं हैं, इन पर ताली-वाली बजा देनी चाहिए बस….
पहली बात जो में साझा करना चाहुंगा मैंने हाल ही में अपने मित्र श्री विनोद पांडेजी से सीखी है. विनोद जी ने मुझे बहुत अच्छी तरह समझाया कि पर्यावरण मात्र पेड़ या जंगल ही नहीं है, और महज पेड़ लगा लेने भर से कोई पर्यावरण प्रेमी नहीं हो जाता. मैं पेड़ों के महत्व को कम करने का प्रयास नहीं कर रहा हूँ, बस इतना कहना चाहता हूँ कि पेड़ों के अलावा भी बहुत कुछ है जो पर्यावरण से सीधे तौर पर जुडा है. हमारी जीवन शैली कितने कार्बन उत्सर्जन के लिए लिए उत्तरदायी है? हम पानी का उपयोग कैसे कर रहे हैं? कूड़े के निस्तारण के प्रति हमारा नज़रिया क्या है? हम क्या खाते हैं, क्या खरीदते हैं? नया घर बनाते समय हम क्या निर्माण सामग्री उपयोग में ला रहे हैं? अपनी गाडी का इस्तेमाल हम कितना और कैसे कर रहे हैं… वगैरा वगैरा.. ये सब पर्यावरण से जुड़े प्रश्न हैं. स्पष्ट है हमारी जीवन शैली, हमारी सोच पर्यावरण के प्रति हमारी जागरूकता और हमारे पर्यावरण प्रेमी होने का मीटर है.
मुझे याद है आज से कुछ वर्ष पूर्व सी.बी.एस.ई. द्वारा एनवायरमेंट स्टडी को प्लस टू लेवल पर एक अनिवार्य विषय के रूप में पाठ्यक्रम से जोड़ा गया था. यह पहल एक बहुत अच्छा जरिया बन सकती थी नई पीढ़ी को पर्यावरण के प्रति जागरूक और संवेदनशील बनाने की. पर जय हो नीति निर्माताओं की -इस विषय में सिर्फ पास भर हो जाना पर्याप्त था. इसमें प्राप्त अंकों को बैस्ट फोर या फाइव में सम्मिलित नहीं किया जा सकता था. आप समझ सकते हैं कि छात्र, अध्यापक या शिक्षा की दुकान बन चुके/बना दिए गए विद्यालय इसे पढने-पढ़ाने के प्रति कितने जागरूक रहे होंगे. कुछ वर्षों बाद, जैसा अपेक्षित था, इस विषय को हटा ही दिया गया. मैं कोई शिक्षाविद या पर्यावरणविद नहीं हूँ, पर मेरा मानना है है कि इसे पाठ्यक्रम का सबसे महत्वपूर्ण विषय होना चाहिए था. पर्यावरण के प्रति हमारे कथित शिक्षाविदो, हमारी सरकार और हमारी अपनी सोच की गंभीरता पर एक सशक्त टिप्पणी है यह वाकया.
मुझे अक्सर यह लगता है कि हमारे लालच के बाद नीतिगत, प्रशासनिक और निजि स्तर पर भी समस्याओं का तत्काल समाधान ढूँढने की हमारी हडबडाहट ने पर्यावरण को सर्वाधिक नुकसान पहुचाया है. पानी की दिक्कत हुई तो हमने टयूबवेल, बोरवेल खोद डाले; कीड़े मकोड़ों को नियंत्रित करने के लिए पेस्टीसाइडस का जम कर इस्तेमाल किया; हर्बीसाइड छिडके; बिजली का उपयोग बढ़ा तो थर्मल प्लांट लगा दिए; पर्यटन बढाने की बात हुई तो हर पहाड़ की चोटी तक सड़क खोद डाली, फोर लेन सडकें बना डालीं; सांप जैसा कोई जानवर पसंद नहीं आया तो उसे मार डाला… समस्या की जड़ तक जाने की जरूरत ही नहीं समझी कभी हमने. सुविधाओं के प्रति ‘टेकन फ़ॉर ग्रांटेड’ वाली सोच रही है हमारी. अपने आस-पास की ज़मीन और उससे जुडी चीज़ों से सीधा संवाद स्थापित करने की हमने कभी कोशिश ही नहीं कीे. आज हम टिड्डियों के कहर, बेमौसम बरसात, नदी-नालों में आये फ्लश-फ्लड, भूस्खलन इत्यादि को ‘दैवीय आपदा’ जैसे भारी भरकम शब्दों से नवाजते हैं. वास्तविकता ये है कि ये सब हमारी खुद की खडी की हुई समस्याएं हैं. प्रकृति और पर्यावरण से हमारे खोखले होते जा रहे रिश्तों का परिणाम हैं ये त्रासदियाँ.
हमारी पिछली पीढ़ी पर्यावरण दिवस नहीं मानती थी. अधिकाँश लोगों को तब शायद पर्यावरण शब्द का अर्थ भी मालूम नहीं होगा. कार्बन-फुटप्रिंट्स, ओजोन-लेयर, क्लाइमेट-एक्सट्रीम, कार्बन-सिंक, ग्लोबल वार्मिंग जैसे शब्द अजनबी रहे होंगे उनके लिए, पर निश्चित है कि उस पीढ़ी के पास पर्यावरण की संवेदनशीलता के प्रति एक सहज-सरल समझ थी.
आज मैं महसूस करता हूँ कि मेरे लिए सबसे बड़ी पर्यावरणविद मेरी आमा (दादी) रही थी, जिसने मुझे बताया था कि हरे पेड़ों काटने से पाप लगता है; पेड़ पर आये फलों पर पहला अधिकार चिड़ियाओं का होता है; खाना बर्बाद करने पर भगवान् नाराज़ हो जाते हैं, शाम होने के बाद पेड़ पोधों से कुछ नहीं तोड़ना चाहिए, उन्हें नीद आती है. चीटियों को आटा खिलाना चाहिए, मछलियों को चारा खिलाने से इम्तहान में अच्छे नंबर आते हैं, वगैरा वगैरा… बहुत कुछ सिखाया था उसने. आमा के इस सहज ज्ञान को हमारे माँ-पिता वाली पीढ़ी ने भी जिया था. शायद इसी वजह से हमारे घर में, उसके चारों ओर फैले बागीचे में फल-फूलों, चिड़ियाओं, तितलियों, सापों, मेढकों इत्यादि का अपना संसार है, जिसे उन्होंने हमारे साथ साझा किया है… शायद खुशी खुशी…
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