नीमली का रेजर और ट्रम्प की भारत यात्रा
राजशेखर पंत ( भीमताल , नैनीताल )- सुबह उठ कर दाढ़ी बनाना एक रूटीन प्रक्रिया है. हम इसके बारे में ज्यादा नहीं सोचते. पांच, सात या दस-बीस रुपये में डिस्पोजेबल रेजर की कई किस्में बाज़ार में कहीं भी मिल जाती हैं और हफ्ते, दस दिन तक इनका इस्तेमाल आराम से किया जा सकता है. मेरी पीढ़ी ने दाढ़ी बनाने की शुरुवात ब्लेड बदलने वाले रेजर से की थी. रेजर उस ज़माने में आपकी स्थायी संपत्ति हुआ करता था. जरूरत होती थी उलट-पुलट कर एरास्मिक, अशोका, विल्किंसन सोर्ड या फिर सेवेन ओ’ क्लॉक के ब्लेड को उसके जबड़ों में कसने की. हमसे पहले वाली पीढ़ी के दौर में लाल रैपर में लिपटा भारत ब्लेड आया करता था. एक-दो दाढ़ी बनाने के बाद इसे कांच की बोतल या चमड़े के पट्टे में बाकायदा घिस कर तेज़ किया जाता था. पर्याप्त सेवा दे चुकने के बाद इसका उपयोग पेंसिल छीलने के लिये किया जाता था. मेरे एक मित्र ने बताया था कि शहर में रहने वाले उनके पिताजी भरपूर इस्तेमाल के बाद करीने से इकठ्ठा किये गए इन ब्लेड्स को एक चिर प्रतीक्षित सौगात के रूप में गाँव के लोगों के लिए ले जाया करते थे. डिस्पोजेबल कल्चर के अभाव में किसी भी वस्तु का नीचोड़ लिए जाने की हद तक इस्तेमाल –चाहे वो दाढ़ी बनाने वाला ब्लेड हो या फिर दिहाड़ी मजदूर –हमारी संस्कृति का हिस्सा हुआ करते थे तब…
फिलहाल मेरा उद्देश्य दाढ़ी के ब्लेड या दाढ़ी बनाने की प्रक्रिया में हुए क्रमिक विकास पर टिपण्णी करना नहीं है. आलेख को शुरू करते वक्त दो-तीन दिन के अंतराल में फिर से चिकनी हो चुकी अपनी ठोढ़ी पर हाथ फिराते हुए बस यूं ही थोड़ा नोस्टालजिक हो गया था.
हमारे बचपन के दिनों में पिताजी संपूर्णानंदजी की एक पंक्ति- हर भौतिक सुख के पीछे एक मूक वेदना टीसती रहती है –को अक्सर कोट किया करते थे. स्वाभाविक है, इस पंक्ति के मर्म को समझ सकने की तमीज हमें तब नहीं थी. कुछ बड़े हुए तो इसका अर्थ काफी हद तक समझ में आने लगा. और फिर अभी कोई एक-आध महिने पहले हुए एक हादसे ने तो इसके गहरे अर्थों के साथ बहुत कुछ समझा दिया है.
हुआ यूं कि एक मीडिया कानक्लेव के सिलसिले में सरिस्का नेशनल पार्क के पास नीमली में बने सेंटर आव साइंस एंड इनव्हाइरनमेंट के एक निहायत ही खूबसूरत प्रतिष्ठान में तीन दिनों के लिए जाने का आमंत्रण मिला. अरावली पहाड़ियों से घिरा यह संस्थान बहुत ही रमणीक है. पूरे देश से लगभग अस्सी पत्रकार और तीस के आसपास जाने-माने पनेलिस्ट्स की गेदरिंग थी. कुछ नया सीखने-समझने का सुनहरा मौक़ा था यह… बावजूद कुछ घरेलु समस्याओं के जाना निश्चित कर ही लिया.
नीमली पहुँचते-पहुँचते शाम के आठ बज गए. एक पुराने मित्र विनोद पांडेजी जी के साथ ने यात्रा को दिलचस्प बना दिया था. रात बढ़िया गुजरी और सुबह उठ कर जब सामान तलाशा तो खुलासा हुआ कि रेजर रखना तो भूल ही गए थे. अब दाढ़ी क्यूंकि सख्त है, बढ़ती भी माशाल्लाह थोड़ी तेज़ी से है… और फिर ठोढ़ी के आस-पास कुछ कमबख्त सफ़ेद खूंटे भी दिखाई देने लगे हैं –जाहिर है सुबह बेनागा दाढ़ी बनाना कमोबेश मजबूरी बन चुकी है. इस मुगालते का बस यूं ही फ़ना हो जाना कि ‘अभी तो मैं ज़वान हूँ’ तकलीफ तो देता ही है.
सीएसई के इस सेंटर के अकेलेपन और वीरानगी का एहसास तब हुआ जब रिसेप्शन से पूछने पर ये बताया गया कि वहां से बाज़ार नौं किलोमीटर दूर है. सेंटर के गेट के सामने से गुजरने वाली अकेली सड़क पर आधा किलोमीटर चलने के बाद आने वाले कुल जमा दो खोकों का पता चला जहाँ किस्मत आजमाई जा सकती थी. सारा दिन खुरदरी ठोड़ी पर लगातार बढ़ रही सफेदी को हथेलियों से ढकते, सहलाते पता नहीं कब निकल गया. एक्सपर्ट्स के प्रजेंटेशन ख़त्म होने का नाम नहीं ले रहे थे. देर शाम मैंने अपने साथी विनोद पांडे जी को बाहर निकल चलने का आग्रहपूर्ण इशारा किया. बड़े उत्साह के साथ रेजर खोजो अभियान का आगाज़ हुआ. गेट पर सिक्योरिटी गार्ड ने लगभग पांचसौ मीटर पर, ठीक मस्जिद के सामने एक खोके की मौजूदगी तस्कीद की… दस-बारह साल की एक प्यारी सी बच्ची बैठी थी उस दूकान पर. परिवार के बाकी सदस्य दूकान के सामने जल रहे अलाव के चारों और बैठे बतिया रहे थे. दो-तीन मिनट की मशक्कत के बाद, जब दाढी वाले एक एक बुजुर्गवार अलाव के सामने से उठ कर आये, तब जा कर रेजर के मायने का खुलासा हुआ. डिस्पोजेबल रेजर का कांसेप्ट समझाते हुए जब हम हार गए तब उस नटखट सी बच्ची ने प्लास्टिक का एक प्रागेतिहासिक सा रेजर सामने रख दिया.
“पांच रुपये का है… ब्लेड अलग से..” उसने समझाने वाले अंदाज़ में बताया. कागज़ में लिपटे किसी विजय ब्रांडनेम वाले ब्लेड को हमारी तरफ सरका कर वह फिर बोली,
“सात रुपये”
अब अगर भूख अपने शबाब पर हो तो सामने रखे भुने चनों को गाज़र के हलुए के तसव्वुर के चलते अनदेखा तो किया नहीं जा सकता. निहायत ही एहतियात के साथ प्लास्टिक के अनगढ़ रेजर और और अलहदा ब्लेड को रूमाल की तह में सहेज कर जैकेट की जेब के सुपुर्द कर दिया. रास्ते में पांडेजी बताने लगे कि किस तरह अगर गर्म पानी से नहाने के बाद दाढी बनाई जाए तो सारा कर्मकांड कितना सहज और पुरसुकून हो जाता है.
अपने स्वीट में पहुँचते ही ड्रेसिंगरूम और फिर वाशरूम के दरवाज़ों को ठोक-बजा के बंद कर लेने के बाद दाढ़ी बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई. प्लास्टिक के रेजर में ब्लेड को बीचोंबीच पकड़ी रहने का कोई प्रावधान नहीं था. ब्लेड की एज कभी दायें होती कभी बाएं. बाकायदा चश्मा लगा कर, नेपकिन से एजेस को थाम कर जैसे-तैसे रेजर को टाइट किया. डर था कि कहीं ज्यादा टाइट करने के चक्कर में उसकी नाजुक मिजाज़ चूड़ियाँ फ्री न हो जाएँ. रेजर अब तैयार था. ब्लेड की दोनों एजेस रेजर से बाहर निकली हुई थीं… खासे डरावने अंदाज़ में. गरम पानी का टैप खोल, अच्छी-भली तादाद में लिक्विड सोप की मात्रा हथेलियों में उड़ेली और गालों की मालिश शुरू हुई. बेसिन के बगल की शेल्फ में पसरा पांडे जी का शेविंग क्रीम, ब्रश और ट्रिपल ब्लेड वाला रेजर मुझे मुंह चिढा रहे थे. मैंने सायास उससे नज़र हटाई और गालों को और जोर-जोर से रगड़ने लगा. पिछले छतीस घंटों में उग आये घनी दाढी के खूंटे मेरे हांथों में चुभ रहे थे. मुझे डर था कि रेजर से एक-दो मिलीमीटर बाहर निकले ब्लेड के किनारे इन खूंटों को बगैर किसी खूंरेजी के छील भी पायंगे या नहीं. कोई और रास्ता था नहीं, बेसिन के नल से लगातार बह रहे गरम पानी से गालों और ठोढ़ी को बाकायदा भिगो-भिगो कर रगड़ना मजबूरी थी. भला हो सीएसई वालों का फेसवाश की बोतल को उन्होंने पूरा भर रक्खा था.
बाहर पांडेजी किसी टीवी चैनल में दिल्ली के हालिया चुनावों में ‘आप’ पार्टी की लगातार बढ़ती हुई सीटों को देख कर उत्साहित थे. पर मेरे लिए उस वक्त वोट पोलेराईजेशन, संस्कृतिक राष्ट्रवाद, सीऐऐ या एनआरसी वगैरा से बड़ा सवाल दाढ़ी छीलना था. गर्म पानी और खुशबूदार फेसवाश की तमाम घिसाई के बाद भी रेजर गालों पर खरखराहट की आवाज़ करते हुए रेंग भर रहा था. किसी भोथरे चाकू से कटहल छीलने जैसा यह दुखदायी अनुभव मुझे लगातार डरा रहा था. रेजर पर पड़ने वाला थोड़ा सा भी गलत दबाव इस बात की गारंटी था कि गाल बुरी तरह कट जाएगा. ठोढ़ी और अपर लिप पर लगभग सहलाने वाले अंदाज़ में चलाने के बावजूद रेजर कर्र-कर्र की डरावनी आवाज़ करते हुए बार-बार उछल रहा था. सारे एहतियातों के बावजूद दो-चार छोटे-बड़े कट्स लग ही गए थे. खून टपक रहा था और बाहर टीवी ‘आप’ की लगातार बढ़ती सीटों के हवाले से शाम की झुरझुरी को गर्माने में मशगूल था. इधर रेजर को अलग अलग एंगल से पकड़ कर इधर-उधर छूट जा रहे खूंटों को गर्म पानी से रगड़-रगड़ कर उखाड़ फेकने की मेरी कोशिश बदस्तूर जारी थी- इस उम्मीद के साथ कि बस इस बार तो वो कट ही जायेंगे.
टीवी पर १८-२० सीटों की बढ़त के आंकड़े का हवाला देते हुए विरोधी दल के कोई साहेबान एक सम्मानजनक हार का फिसलता हुआ दामन थामने की कोशिश कर रहे थे. शायद उस वक्त यह अंदाज़ लगाना मुश्किल था कि कुल जमा सीटों की संख्या दस से भी नीचे रह जायेगी. अपनी झूठी शान और हेकड़ी के चलते उम्मीद के दामन को ज़बरन थामे रहना भी शायद इंसानी फितरत है…
“ठीक ही तो है…” मैं अब शायद खुद से मुखातिब था, “रेजर चाहे जितना भी भोथरा हो, दाढ़ी तो काटेगा ही… अगर गाल थोड़े बहुत भी चिकने हो गए तो सुबह इस नासमझ औज़ार के साथ की गयी एक और कोशिश बेहतर नतीजे दे सकती है.”
ठोढ़ी और गलों पर उभर आये कट्स से छलकती खून की बूंदों पर आफ्टरशेव की एक भरपूर ‘छपाक’ के बाद चेहरे पर निविया क्रीम मलते हुए हुए मैं वाशरूम से बाहर निकला. टीवी देखनें में मसरूफ़ पांडेजी के बगैर कुछ पूछे मैंने लगभग सफाई देने वाले अंदाज़ में गालों पर हुए रक्तपात का इल्जाम बैगैरत रेजर पर लगाते हुए अगली सुबह इन पर बेहतर चिकनाई होने की उम्मीद ज़ाहिर की.
“आज शायद इस तरह के रेजर को ढंग से चलने की तकनीक समझ नहीं आयी थी.”
खिसियानी सी हँसी के साथ मैंने आँखें टीवी स्क्रीन पर गढा दीं. तब तक लगभग निश्चित हो चुकी हार की तोहमत को वोटरों की गलत प्राथमिकताओं और लालच सर मढा जा रहा था. बेशक आने वाले चुनावों के लिए उम्मीदें बाकायदा बरकरार थीं.
गालों को सहलाते-सहलाते पता नहीं कब नींद आ गयी. उस रात एक अजीब सा सपना आया था मुझे जिसकी याद ट्रम्प की बहुचर्चित हालिया भारत यात्रा और उस दौरान घटी घटनाओं ने एक बार फिर ताज़ा कर दी है.
एक सीधी-सपाट सड़क पर में बेतहाशा भागता चला जा रहा हूँ. वो रेजर जिससे दाढ़ी बना कर मैं सोया था मेरा पीछा कर रहा है. उसका आकार धीरे-धीरे बढ़ने लगता है… उसके किनारों से निकली ब्लेड की धार बहुत खतरनाक दीख रही है. मैं भागते हुए हाँफने लगता हूँ. अचानक मेरी निगाह अपने पैरों पर जाती है. मेरा कद तेज़ी से घट रहा है. एक झटके में ये रेजर मेरी गर्दन काट सकता है… लहूलुहान कर सकता है मुझे. मैं चीखना चाहता हूँ, पर गले से आवाज़ नहीं निकलती. रेजर बहुत नज़दीक आ चुका है अब. लडखडाते हुए ही सही मेरे पैर दौड़ना जारी रखते हैं. मेरी मुट्ठी और आँखें भिंची हुई हैं. अचानक एक ठोकर खा कर गिर पड़ता हूँ मैं. रेजर अब आसमान की ओर ताकते हुए मेरे चेहरे के ऊपर भिनभिनाते हुए मंडराने लगता है. उसके ऊपरी हिस्से में दो होठ उभर आये हैं और हैंडिल नाक की शक्ल अख्तियार कर लेता है. भिनभिन की आवाज़ जल्द ही स्पष्ट शब्दों में तब्दील हो जाती है. नस्लीय, धार्मिक, या फिर किसी ऐसी ही ओढ़ी हुई पहचान से अलग वह शायद अब इंसान के अन्दर की आवाज़ में तब्दील हो चुका है,
“मैं तुम्हारी इच्छाओं का नुमाइंदा हूँ… ऐसी इच्छाओं का जिन्हें तमाम ग़लतफ़हमियों के चलते पूरा करना अब तुम्हारी मजबूरी बन चुकी है. एक तानाशाह जैसे हो तुम, जो हर कीमत पर अपनी इच्छाओं को पूरा करना चाहता है… जैसे वो महज़ ख्वाहिशें नहीं उसकी ज़रूरतें हो… कुछ समझे?”
मैंने ना समझ सकने का इशारा करते हुए गर्दन हिलाता हूँ. सिर्फ नाक और होठ तक सिमट चुकी उस शख्सियत की भावभंगिमा अब उतनी डरावनी नहीं लग रही है.
“दाढ़ी को ज़बरन छील कर क्या साबित करना चाह रहे थे तुम… सिर्फ यही ना कि अभी ज़वान हो. ठोढ़ी पर उग आये सफ़ेद खूंटे तुम्हारी बढ़ती उम्र की चुगली यहाँ मौजूद युवा जर्नलिस्ट्स के सामने न खा सकें… इसीलिये छीला है ना गालों को?… इतना ज़रूरी था यह सब? यहाँ आये एक्सपर्ट्स को सुनने के बजाए गालों को चिकना करना ज़्यादा अहम् था तुम्हारे लिए क्योंकि अपने व्यक्तित्व की एक खुद ही गढ़ ली गयी तस्वीर को लादना चाहते हो तुम दूसरों पर… फिर चाहे इसके लिए बेरहमी से कटते हुए गालों का दर्द ही क्यों न सहना पड़े.”
कुछ देर पसरे सन्नाटे के बाद वह फिर से बोलना शुरू करता है.
“अकेले नहीं हो तुम, तुम्हारे जैसे न जाने कितने और हैं जो अपने हाथों में एक भोथरा सा रेजर लेकर- जिसे इन्होने विकल्पहीनता की स्थिति में किसी मजबूरी के चलते खरीदा था- छील देना चाहते हैं उस सबको जो बकौल उनके, उनकी खुद की गढ़ी तस्वीर को बदरंग कर रहा है… कटे-फटे चेहरे पर आफ्टरशेव और निविया का मलहम लगाते वक्त यही सोच रहे थे ना कि बस एक बार जलन कम हो जाये तो सुबह पूरी तरह से छील सकोगे इसे…”
भोथरे रेजर का संवाद जारी रहता है. एक संजीदा दार्शनिक की तरह वह लगातार बडबडाये जा रहा है. मेरे ज़ेहन में उसके शब्द, “अकेले नहीं हो तुम… बार-बार गूँजते हैं…
सुबह चाय के गर्म प्याले के साथ विनोद पांडेजी ने जगाया. पीठ के पीछे छुपायी हथेली को उन्होंने मुस्कुराते हुए मेरी और बढाया. खूबसूरत सी पैकिंग में लिपटा जिलेट का एक ट्रिपल एज्ड डिस्पोजेबल रेजर था उनके हाथों में.
“कल शाम को ही आपकी बैचैनी देख कर सिक्योरिटी गार्ड से सुबह की ड्यूटी के लिए आने वक्त लेते आने के लिए बोल दिया था.”
उनका चेहरा दमक रहा था. दिल्ली के इलेक्शन के फाइनल रिजल्ट्स लगभग आ चुके थे. मैं पांडेजी के हाथ से रेजर को लगभग छीनते हुए वाशरूम की और भागा. आँखों को भींचते हुए मैंने उस भोथरे रेजर को डस्टबिन में दफ़न कर दिया. भूलना चाहता था मैं उसे, उस अजीब से सपने को.
पर आज, जब इस वाकये को गुज़रे महिने भर से ज्यादा का वक्त निकल चुका है, और इस बीच हथियारों के एक भारी-भरकम ज़खीरे का सौदा पटा कर ट्रम्प वापस अमरीका जा चुके हैं, यही नहीं, दिल्ली के दंगों पर आफ़्टरशेव और निविया- (माफ़ कीजिएगा मेरा मतलब मरहम से था) लगाने की पुरज़ोर कोशिश जारी है- न जाने क्यों मुझे लग रहा है कि जाते जाते ट्रम्प और उनके दौरे के दौरान उनके आस-पास मंडराने या फिर मंडराने की ख्वाहिश रखने वाले बहुत से लोग डस्टबिन में फैंके गए उस रेजर को एक बार फिर हमारे हाथों में ज़बरन पकड़ा गए हैं.
इसका आकार और ज्यादा बड़ा और डरावना लग रहा है अब.
राजशेखर पंत हिंदी और अंग्रेजी भाषा के उत्कृष्ट लेखकों में गिने जाते हैं. आपका अधिकतर लेखन कार्य हिमालय क्षेत्र के पर्यावरण, नदियों के अद्ध्यन , हिमालयी संस्कृति एवं जीवन पर केंद्रित रहा है. आपके लेख कई राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं. आपको वर्ष २००७, २००८ , २०१३ और २०१५ में विभिन्न विषयों पर कार्य एवं शोध लेखन के लिए सेंटर ऑफ साइंस एंड एनवायरनमेंट , नई दिल्ली की प्रतिष्ठित मीडिया फ़ेलोशिप प्रदान हो चुकी है , जिसमे भारत एवं एशिया पसिफ़िक क्षेत्र के पत्रकारों को विभिन्न विषयों पर शोध एवं रिपोर्टिंग लेखन के लिए प्रदानं किया जाता है। आप लेखक , पत्रकार, के साथ साथ एक बेहतरीन डाक्यूमेंट्री निर्माता भी हैं , और आपकी कई डॉक्यूमेंट्री फिल्म्स को पुरुस्कृत भी किया जा चूका है. आपका वर्तमान निवास भीमताल , जिला नैनीताल, उत्तराखंड में है.
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